कोरियाई आश्चर्य
तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया और अकादमिक जगत में "कोरियाई आश्चर्य" (Korean Miracle) शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. चूंकि कोरिया अभी दो अलग अलग देशों में विभाजित है तो इस शब्द का इस्तेमाल किस कोरिया के लिए किया जाता है? बेशक दक्षिण कोरिया के लिए कोरियाई आश्चर्य शब्द इस्तेमाल किया जाना चाहिए क्योंकि ज्यादातर कोरिया के तथाकथित विशेषज्ञों (भारत या अन्य) की रोजी रोटी और प्रचंड झूठ की दुकान भी तो चलनी है.अब उनके पेट पर लात मारने वाली बात जो है. पर क्या करें सच्चाई कड़वी जो है और इस तथाकथित अकादमिक जगत (खासकर दक्षिण कोरिया या उससे सहायता प्राप्त) को या तो सच्चाई से डर लगता है या फिर वो पापी पेट के लिए तमाम झूठ फैलाने पर मजबूर हैं . या फिर कुछ और वजहों से. तो पहेलियाँ न बुझाते हुए सीधा मुद्दे पर आते हैंं
कोरियाई आश्चर्य नामक शब्द का अकादमिक जगत में सबसे पहली बार इस्तेमाल 1964 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री जोआन वायलेट राबिंस (Joan Violet Robinson) द्वारा जनवादी कोरिया (उत्तर कोरिया) के लिए किया गया था और जिस दक्षिण कोरिया की आर्थिक चमत्कार की पुरजोर मिसाल दी जाती है 1964 में उसकी औकात गली के एक मरणासन्न मरियल कुत्ते की तरह थी. जनवरी 1965 के मंथली रिव्यू (Monthly Review) शोध पत्रिका में प्रकाशित जोआन राबिंसन के शब्दों में (तस्वीर नीचे)
खुद पढ़ लीजिए कि उन्होंने जनवादी कोरिया को लेकर क्या कहा था. हिन्दी में उसका अनुवाद कुछ इस तरह से है:
ग्यारह साल पहले फ्यंगयांग में एक पत्थर दूसरे पर खड़ा नहीं था.(वे मानते हैं कि एक टन या उससे अधिक का एक बम प्रति व्यक्ति पर गिराया गया था.) अब दस लाख निवासियों वाला एकआधुनिक शहर चौड़ी नदी के दो किनारों पर खड़ा है, जिसमें पांच मंजिला ब्लॉकों की चौड़ी पेड़-पंक्तिबद्ध सड़कें हैं, सार्वजनिक भवन, एक स्टेडियम, थिएटर (युद्ध से बचे एक भूमिगत) और एक सुपर-डीलक्स होटल.औद्योगिक क्षेत्र में कई अद्यतन (Up-to-date) कपड़ा मिलें और एक कपड़ा मशीनरी संयंत्र शामिल हैं. चौड़ी बहाव वाली नदी और पार्क के रूप में संरक्षित छोटी-छोटी पेड़ों से ढकी पहाड़ियाँ सुखद दृश्य प्रदान करती हैं.मलबे से जल्दबाजी में बने छोटे भूरे और सफेद घर के कुछ खंड हैं, लेकिन वहां भी गलियां साफ हैं, और बिजली और पानी का प्रबंध है. यह एक बिना झुग्गियों वाला शहर है.
अमेरिका की अभूतपूर्व बमबारी से संपूर्ण विध्वंस की स्थिति में जनवादी कोरिया ने मात्र 11 सालों (1953- 1964) में बिना किसी खास बाहरी मदद के अपने दम पर ही खड़ा हो गया तो आश्चर्य किसे कहते हैं?
और एक सवाल जेहन में जरूर उठता है कि साम्राज्यवाद के जनवादी कोरिया पर दुनिया के सबसे कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगे होने के बावजूद वो इतने उन्नत हथियार कैसे बना लेता है? तो जनवादी कोरिया न केवल उन्नत हथियार बना लेता है बल्कि वहां जनता को मुफ्त में देने के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले ढेरों मकान , मुफ्त इलाज, मुफ्त शिक्षा और बच्चों के लिए मुफ्त में किताबें, पोशाक, बैग, स्टेशनरी का सामान और रोजाना दूध भी मिलता है और इन चीजों में आज तक कटौती नहीं की गई है. उपर से जनवादी कोरिया की स्थापना के 26 सालों के भीतर स्वतंत्र और समाजवादी अर्थव्यवस्था के दम पर जनता से लिए जाने वाले सभी टैक्स चरणबद्ध तरीके से पूरी तरह से खत्म कर दिए गए. उपर से साम्राज्यवादी कठोर प्रतिबंध अलग से तब उन्नत हथियारों के विकास के अलावा जनता को इतनी सुविधा देना कैसे मुमकिन हुआ?
जनवादी कोरिया का असली हथियार आत्मनिर्भरता वाला जूछे विचार है जो किसी भी प्रतिबंध को झेल सकता है. जनवादी कोरिया के खिलाफ लगाए गए सारे प्रतिबंध बेकार और कचरे के ढेर में फेंकने लायक हैं. जनवादी कोरिया के सारे हथियार पूर्णतः स्वदेशी तकनीक से बने हैं. सोवियत संघ के विपरीत जनवादी कोरिया ने अपने ज्यादातर संसाधनों को हथियार निर्माण में ही नहीं झोंक दिया. जनवादी कोरिया के बुद्धिमान नेतृत्व ने 1960 के दशक से ही राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के समानांतर विकास की नीति अपनाई और वो आज तक इसी नीति पर चलता आ रहा है. इसलिए वहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उन्नत हथियार बनाने के लिए जनता की सुविधाओं में जरा सा भी कटौती नही की गई. न इन सुविधाओं के लिए देश में 1974 से पूरी तरह से समाप्त कर दी गई टैक्स व्यवस्था को फिर से बहाल कर उनपर कोई टैक्स लगाया गया.वहीं दूसरे समाजवादी देश अपनी अर्थव्यवस्था नहीं संभाल सके और जनता की तकलीफ बढ़ती चली गई और यह ऐसे देशों में समाजवादी व्यवस्था के पतन का एक कारण बना.
पश्चिम और अन्य देशों के वामपंथियों के अलावा मेरी मित्रता सूची में मौजूद कुछ स्वघोषित "असली मार्क्सवादियों" को इसी बात को समझने की जरूरत है. खासकर ऐसे "असली मार्क्सवादियों " को जिन्हें लगता है कि सिद्धांतत : जनवादी कोरिया में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जनता के सामाजिक उपभोग में कटौती जरूरी है या वास्तव में की गई है. जनवादी कोरिया को अच्छे से पढ़े बिना उसकी दूसरे समाजवादी देशों का संदर्भ देकर तुलना करना उनकी निहायत ही बड़ी बेवकूफी है. ऐसे लोग जनवादी कोरिया को अच्छे से पढ़ेंगे तो उनके ज्ञान में बेहतरी ही होगी.
साथ ही एक बात और गौर करने लायक है कि कम्युनिस्ट पार्टी शासित पूर्व सोवियत संघ और पूर्व यूरोप के समाजवादी देश और वर्तमान में चीन, वियतनाम, लाओस और कुछ हद तक क्यूबा ने भी अपने दरवाजे साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और संस्थाओं के लिए खोल दिए और वहीं जनवादी कोरिया ने आजतक ऐसी ताकतों के लिए कभी नहीं खोले और न कभी खोलेगा! उसने अपने दम पर अपनी जरूरत की लगभग सारी चीजें बना लीं. आखिरकार ये सारी चीजें इसी दुनिया में ही बनती हैं, आसमान से नहीं टपकती. साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए जरा सा भी दरवाजा न खोलना और अपनी स्वतंत्रता की नीति पर चलना एक कारण है कि दुनिया में किसी भी देश से भी ज्यादा जनवादी कोरिया के खिलाफ हमेशा साम्राज्यवादी जहरीला प्रोपेगेंडा पूरी तीव्रता के साथ चलता रहता है. साम्राज्यवादियों को तो सबसे ज्यादा डर जनता को सच्चाई का पता लगने से लगता है.
अब बात करें दक्षिण कोरिया की जिसको ज्यादातर लोग आर्थिक विकास के मामले में एक "आश्चर्य" समझ लेते हैं. लोगों और दक्षिण कोरिया के सरकारी या निजी क्षेत्र की छात्रवृत्ति पर पढ़े तथाकथित कोरिया विशेषज्ञ! दक्षिण कोरिया की मदद लेकर आप जनवादी कोरिया के बारे में अकादमिक झूठ या धोखाधड़ी ही कर पाओगे. क्योंकि दक्षिण कोरिया में जनवादी कोरिया की व्यवस्था के सकारात्मक पहलू को अकादमिक रूप से उजागर करना या सामान्य नागरिक के नजरिए से कुछ अच्छा बोलना कानूनन जुर्म है. उपर मैंने जनवादी कोरिया की जनकल्याणकारी व्यवस्था के बारे में जो लिखा है वो सच है. यही बात दक्षिण कोरिया या उससे सहायता प्राप्त संस्था में पढ़ने या पढ़ाने या काम करने वाले बोलने की हिम्मत कर दिखाऐं और देखें क्या हालत होती है उनकी. दक्षिण कोरिया तो बड़ा उदार और लोकतांत्रिक है ना. हमसे ऐसी अकादमिक धोखाधड़ी नहीं हो सकती. भारत में लगा था कि चीजें कुछ अलग होंगी क्योंकि भारत के दोनों कोरियाई देशों के साथ राजनयिक संबंध हैं लेकिन जहाँ दक्षिण कोरिया हावी है वहाँआप जनवादी कोरिया को लेकर न चाहते हुए भी अकादमिक रूप से झूठ और धोखाधड़ी ही कर पाएंगे. इतना ही नहीं आप दक्षिण कोरिया की असलियत को उनके पैसे पर पलते हुए ही सामने लाईए. दक्षिण कोरिया के अधिकतर लोग अपनी आलोचना को लेकर मोदी जितना ही असहज हैं तो वहाँ की सरकार और कारपोरेट को छोड़ ही दें क्योंकि ये गंदगी उन्हीं के द्वारा आम जनता तक फैलाई गई है.
जोआन राबिंसन ने 1964 में जनवादी कोरिया को कोरियाई आश्चर्य कहा, उसी समय ये दक्षिण कोरिया अपनी युवतियों के जिस्म का सौदा करवाकर अपनी कुल आय का 25% कमा रहा था. न इनके यहाँ कोई पूंजी लगाने को तैयार था न कोई व्यापार करने को क्योंकि जनवादी कोरिया की तरह अपने दम पर खड़े होने की औकात तो नहीं थी. पर वियतनाम युद्ध में अमेरिका का अलग थलग पड़़ना और उसके गुलाम दक्षिण कोरिया का भारी सैनिक सहायता देना , दक्षिण कोरिया जैसे मरियल कुत्ते में नए जीवन का संचार कर दिया. अमेरिका ने मौत के सौदागर के रूप में कमाई गई बेशुमार दौलत और उस जमाने की सारी तकनीक का हिस्सा दक्षिण कोरिया को खुद तो दिया ही जापान, पश्चिम जर्मनी , फ्रांस और ब्रिटेन जैसे अपने दुमछल्लों से भी दिलवाया. साथ ही अमेरिका ने दक्षिण कोरिया की कठपुतली सरकार को दरकिनार कर अपनी सलाहकार एजेंसियों से इसकी आर्थिक विकास की रुपरेखा तैयार करवाई नहीं तो अपनी युवतियों के जिस्म बिकवा कर पैसा कमाने वाले इन दक्षिण कोरियाईयों के हाथ कौन सी जादू की छड़ी लग गई. इतना ही नहीं अमेरिका ने दक्षिण कोरिया में बना माल अपनी Buy Korea की नीति के तहत अनाप शनाप तरीके से खरीदा और अपने दुमछल्लों के बीच भी बिकवाया ताकि अमेरिका का मरियल कुत्ता दक्षिण कोरिया तंदरुस्त हो सके और मालिक की अच्छी से सेवा कर सके और दुनिया को पता चल सके कि अमेरिका का वफादार कुत्ता बनने में ही भलाई है. आज दक्षिण कोरिया नव उपनिवेश (Neo Colony) का सबसे बड़ा उदाहरण है . दक्षिण कोरिया के पास अपना कुछ भी नहीं है वो दुनिया का बहुत बड़ा परजीवी देश है.
1965 के पहले भारत के आर्थिक माॅडल की चर्चा होती थी, कम से कम उस समय के भारत के पास स्वतंत्र विदेश नीति और गुटनिरपेक्षता की नीति तो थी और भारत ने वियतनाम युद्ध में अमेरिका का साथ नहीं दिया. वरना दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास की पोल अपने 20 सालों के गहन शोध के द्वारा खोलने वाले जापान के शिजुओका विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर पार्क कुन हो (Park Keun Ho) ने 2015 में मूल जापानी में प्रकाशित अपनी किताब 韓国経済発展論 高度成長の見えざる手 और 2017 में प्रकाशित उसके कोरियाई संस्करण 박정희 경제 신화 해부 - 정책 없는 고도성장 (इस किताब का अंग्रेजी और जाहिर सी बात हिंदी संस्करण नहीं है) में जापानी अर्थशास्त्री नाकामुरा हेईजी का हवाला देते हुए लिखा है कि भारत ने 1955 से 1966 के बीच इन 11 सालों में इतना तेजी से औद्योगीकरण किया था कि उसके पहले उस स्तर तक पहुँचने में अमेरिका को 60 साल( 1860-1927) लगे और तथाकथित "आर्थिक चमत्कार" दक्षिण कोरिया को उस स्तर पर पहुँचने में 15 साल(1965-1980) लगे, यानि भारत की तुलना में 4 साल ज्यादा ! (तस्वीर नीचे)
चलो भारत और अमेरिकी गुलाम दक्षिण कोरिया तो विदेशी मदद से औद्योगीकरण करने में सफल हुए और जनवादी कोरिया थोड़ी सी विदेशी मदद और ज्यादा अपने दम पर 1953-1964 के बीच ही प्रमुख औद्योगिक देश बन गया. तो असली आश्चर्य कहाँ हुआ. जनवादी कोरिया के बारे में जान लीजिए कि 1956 में सोवियत संघ द्वारा साम्राज्यवाद के साथ सहयोग की संशोधनवादी नीति अपनाने के बाद से जनवादी कोरिया के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण रहे और 1962 में सोवियत संघ ने जनवादी कोरिया पर एकतरफा प्रतिबंध लगा दिए और नया नवेला चीन और पू्र्व यूरोप के देश उतना मदद करने में असमर्थ थे. फिर जनवादी कोरिया उनकी मदद का भी मोहताज नहीं था.
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