छल्लीमा 804 ट्रैक्टर

 साम्राज्यवाद का एक जबाब! 

आत्मनिर्भरता वाला इंकलाब! 


आत्मनिर्भर उत्तर कोरिया की सरकारी ट्रैक्टर फैक्टरी के मजदूरों ने 100%  स्वदेशी तकनीक से "छल्लीमा  804 (Chollima 840 천리마 804) ट्रैक्टर विकसित कर लिया है. 




यहाँ 804 में 80 का मतलब  80 हार्सपावर और 4 का मतलब फोर व्हील ड्राईव(4 WD) है. इस ट्रैक्टर को उत्तर कोरिया ने 2016 में विकसित किया था. छल्लीमा 804 माॅडल के ट्रैक्टरों को कारखाने से देश के विभिन्न सरकारी कृषि फार्मों में भेजा जा रहा है. इसके पहले ट्रैक्टर कारखाना  60 हार्सपावर का ट्रैक्टर बना रहा था पर ये वाला ट्रैक्टर उसकी तुलना में 10 सेंटीमीटर ज्यादा गहरी जुताई कर सकता है और 3 से 5 तरह के कृषि यंत्रों को एक साथ इसमें जोड़कर खेती के कामों को और भी कुशलता से किया जा सकता है. ये ट्रैक्टर तकनीकी तौर पर उन्नत तकनीक वाले पूंजीवादी देशों के ट्रैक्टर के बराबर है और यह सब उत्तर कोरिया ने अपने बूते बनाया है. 


उत्तर कोरिया अपनी स्थापना से ही आत्मनिर्भरता वाले दर्शन को कड़ाई से अपना रखा है, उसका मानना है कि मुकम्मल आजादी खुद मुख्तार यानि आत्मनिर्भर होकर ही मिल सकती है. कोरियाई कम्युनिस्ट नेता किम इल संग के नेतृत्व में 1930-40 के दशक में जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र गुरिल्ला संघर्ष के दिनों में ही ये तजुर्बा हासिल कर लिया गया था कि अपनी आजादी के लिए किसी बाहरी शक्ति पर निर्भर रहना ठीक नहीं. हुआ ये था कि क्रूर जापानी साम्राज्य से लड़ाई में हथियारों खासकर हथगोले की सख्त जरूरत थी तब किम इल संग समेत अन्य गुरिल्ला लड़ाकों को लगा था कि दुनिया का पहला मजदूर राष्ट्र सोवियत संघ हथगोले की फैक्ट्री लगाने में मदद करेगा पर परिस्थिति वश सोवियत संघ से अपेक्षित मदद नहीं मिल पाई तब उन गुरिल्ला लड़ाकों ने अपने पास उपलब्ध संसाधनों की मदद से ही हथगोले बनाने में सफलता पाई और आत्मनिर्भरता वाला सबक बहुत अच्छे से सीख लिया.


उत्तर कोरिया की आत्मनिर्भरता वाले दर्शन का उल्लेख उसके खिलाफ झूठ और जहर उगलने वाले दक्षिण कोरिया से प्रकाशित कुछ किताबों में भी मिलता है. उत्तर कोरिया के विज्ञान और तकनीक पर 1998 में दक्षिण कोरिया में प्रकाशित एक किताब "उत्तर कोरिया को चलाने वाले टेक्नोक्रेट" (북한을 움직이는 테크노크라트) में इस बात का प्रमुखता से उल्लेख है कि एक बार  स्वीडन के किसी मशीन निर्माता ने दोनों कोरिया को एक ही तरह कि मशीन बेचीं. जहाँ उत्तर कोरिया ने मशीन ले जाने के बाद एक बार भी उसकी मरम्मत के लिए उसी स्वीडिश कंपनी को एक बार भी सम्पर्क नहीं किया ,वहीं दक्षिण कोरिया ने कुछ सालों के बाद  कंपनी को मशीन में आई खराबी की मरम्मत  के लिए संपर्क किया. ऐसा क्यों हुआ? उत्तर कोरिया मशीन खरीदने के साथ उसी कंपनी के एक इंजीनियर को मशीन की कार्यप्रणाली और सरंचना विस्तार से  समझने के लिए अपने साथ ले गया और बाद में बिलकुल वैसी ही मशीन अपनी तकनीक से बनाने में  सफलता पा ली , इसीलिए उत्तर कोरिया को उस मशीन के मरम्मत के सिलसिले में कंपनी की मदद की जरुरत ही नहीं पड़ी, वहीं दक्षिण कोरिया ने मशीन खरीदते वक्त मोटा मोटी अंदाजन मशीन की कार्यप्रणाली समझी. इसलिए वो उस मशीन की खुद से मरम्मत तक नहीं कर सका.


 इसके अलावा उत्तर कोरिया की सरकारी विमान कंपनी के पास दशकों पहले उत्पादन बंद हो चुके सोवियत इल्युशिन विमानों का बेड़ा है और उसके कल पुर्जे  मिलना तो असंभव है , लेकिन उत्तर कोरिया ऐसे दुर्लभ विमानों का अभी भी सफलतापूर्वक व्यावसायिक परिचालन (Commercial Operation ) कर रहा है. कैसे? क्योंकि उसने अपनी स्वदेशी तकनीक से ही सालों पहले इन विमानों के कल पुर्जे बना लेने में सफलता पा ली थी.


असल आत्मनिर्भरता टीवी चैनलों पर जुमलेबाजी से नहीं आती, इसके लिए बहुत तपना और खपना पड़ता है. नहीं नहीं जब देश ही बेचना है तब कैसी आत्मनिर्भरता!! 

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