दक्षिण कोरिया की खौफनाक सच्चाई
23 अगस्त 2017 का लेख
दक्षिण कोरिया से संबंधित इस बहुत ही लम्बी लेख की शुरुआत दक्षिण कोरिया के समाज के एक हिस्से की भारतीयों के प्रति नस्लवादी टिप्पणियों से हुई है, ऐसा दक्षिण कोरियाई समाज को व्यापक रूप से समझने के उद्देश्य से किया गया है. इस लेख का उद्देश्य सारे दक्षिण कोरियाइयों के प्रति भारतीयों के मन में नफरत फैलाना कतई नहीं है. इस लेख में दक्षिण कोरिया के तथाकथित “विकसित”, “हाई-टेक” वाले अति चमकदार आवरण के पीछे छिपा दिए गए घनघोर अँधेरे पक्षों को उजागर किया गया है और इसके प्रमाण भी दिए गए हैं. जहाँ तक संभव हो सका उन प्रमाणों के अंग्रेजी में लिंक देने की कोशिश की गई, जहाँ नहीं हो सका वहां कोरियाई भाषा में प्रमाणों के लिंक दिए गए हैं. लेख पूरी तरह से सेंसरविहीन है और इस लेख की भाषा कुछ जगहों पर किसी को आपत्तिजनक भी लग सकती है .
ch-1****
UN이 공식적으로 지정한 세계에서 가장 더러운 나라가 인도임. 2위는 지정 없었지만 중국이 아닐지.
2017-06-07 04:11신고
(संयुक्त राष्ट्र का आधिकारिक रूप से मानना है कि विश्व में सबसे गन्दा देश भारत है. दूसरा स्थान घोषित तो नहीं है पर इसपर चीन होगा)
davi****
잘했다.무슬림들, 인도종자들...반은 사기꾼에 폭력꾼들 뿐이다.
2017-06-07 04:35신고
(अच्छा किया, मुस्लिम , भारतीय नस्ल......ये धोखेबाज होने के साथ साथ हिंसक भी होते हैं)
bobo****
여러분이 아무리 인도놈 옹호하고 쉴드쳐도 인도는 너희들을 좋아하지 않습니다 그저 소매치기 대상일뿐이고 강간 갱뱅의 대상일뿐이죠 인도는 기본 5명 갱뱅인거 알죠?
2017-06-07 04:16신고
(आप लोग कितना भी तुच्छ भारतीयों का समर्थन कर लो, भारत तुम्हें पसंद नहीं करता है, आप लोग भारतीयों के लिए केवल अपने पॉकेट मराने और सामूहिक बलात्कार के लिए ही हो. आप जानते ही हैं न कि भारत में कम से कम पाँच लोग सामूहिक बलात्कार में शामिल होते हैं ?
long****
인도가 강간으로 유명한 국가인대 뭐 어때서? 정당한 조치라고 본다.
(भारत बलात्कार के लिए जाना जाता है इसमें कोई शक? बिल्कुल सही किया )
sin9****
한국어 너에게 도움 되니간 배운 거 아닌가? 제2고향 타령 하지마라. 무슨 인종차별 인가? 나이제한 업소는? 애완견 제한 업소는?
2017-06-07 04:05신고
(कोरियाई भाषा से फायदा है इसीलिए तो तुमने इसे सीखा है? कोरिया को अपना दूसरा घर ना कह. ये नस्ली भेदभाव लगता है तुम्हें? उम्र के आधार पर और पालतू कुत्ते के साथ होने पर प्रवेश न दिए जाने वाली जगहों को क्या कहा जाये?
quar****
인도인이면 한국서 일이나 열심히 하지... 어디 카레냄새 풍기며 유흥장에 들어가나??? 발리유드 영화나보고 길에서 춤이나 춰라
2017-06-07 03:56신고
(भारतीय लोगों को कोरिया में अपना काम मेहनत से करना चाहिए... क्यों कढ़ी की गंध फैलाते हुए बार या क्लब जाते रहते हो??? बॉलीवुड फिल्में देखो और सड़क पर नाचो)
puyo****
더러운 인도짱골라들 위웩~~업소 잘했어!
2017-06-07 04:45신고
(गन्दी भारतीय नस्ल उवे उवे (उल्टी करने की आवाज़) ~~ उस बार ने सही किया )
sin9****
인도가 어디서 인종차별을 말해? ㅋㅋ 계급사회 국가 인도 아닌가?
2017-06-07 03:48신고
(भारत किस बिना पर नस्ली भेदभाव की बात कर रहा है? ह ह क्या भारत वर्ग आधारित देश नहीं है?
tcqs****
응 한국에서 꺼져
2017-06-07 04:25
(हाँ कोरिया से दफा हो जाओ )
स्रोत: [단독]인도인 입장 막은 이태원 유명업소 http://news.naver.com/main/read.nhn...
ये घनघोर नस्लीय टिप्पणियाँ दक्षिण कोरिया में अध्यनरत एक भारतीय छात्र के साथ एक नस्लीय घटना के होने के बाद वहाँ के मीडिया में इस घटना के प्रमुखता से उछाले जाने के बाद दक्षिण कोरियाई संघियों (यहाँ संघी का मतलब केवल भारत के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले संघी नहीं हैं . मैं दुनिया के हरेक नस्लवादी और नफरती सोच वाले इंसान के लिए “संघी” शब्द का प्रयोग करता हूँ ) द्वारा की गयी है. 3 जून 2017 की रात वह भारतीय छात्र अपने कुछ दोस्तों के साथ दक्षिण कोरिया की राजधानी सीओल स्थित विदेशियों के बीच काफी प्रसिद्द एक इलाके में स्थित एक बार में जाता है. उस बार में उसके सारे दोस्तों को अन्दर जाने की अनुमति मिल जाती है , लेकिन इस छात्र को नहीं मिलती क्योंकि उसकी नागरिकता भारतीय है और वे भारत सहित कुछ देशों (ज्यादातर एशियाई मुल्क) के लोगों को अपने यहाँ प्रवेश नहीं देते. उसके एक साथी ने इस घटना का विडियो बना यू ट्यूब पर अपलोड किया और यह विडियो इतना वायरल हुआ की दक्षिण कोरिया की मीडिया को इसे कवर करना पड़ा
चौतरफा आलोचना होने के बाद उस बार के मालिक ने इस घटना के लिए माफ़ी मांगी और वादा किया कि उसके बार में प्रवेश के लिए अब किसी भी देश के लोगों को नहीं रोका जायेगा ( कहा जा रहा है कि बार मालिक ने आधे अधूरे मन से रस्मी तौर पर माफी मांगी है )
इस घटना के बाद जाहिर है दक्षिण कोरिया में प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों ने इस नस्लीय घटना की जमकर आलोचना की और उस छात्र का पुरजोर समर्थन किया. दक्षिण कोरिया में इससे भी ज्यादा भयंकर नस्ली घटनाएं होती हैं और उसे कवरेज भी मिलता है , लेकिन नतीजा सिफर , इस मामले में भी यही होगा कुछ दिन तक मुद्दा गरम रहेगा , लेकिन बाद में वही ढाक के तीन पात. 2000 के शुरुआती 5 साल मैंने दक्षिण कोरिया में बिताएं हैं और अभी वहाँ घट रही चीजों को देख कर यह कह सकता हूँ की एक दशक पहले की तुलना में वहाँ चीजें बद से बदतर हो रही है. अब इसी नस्लीय घटना को ले लीजिये. मेरे समय में दक्षिण कोरिया में सिर्फ कुछ जगहों पर केवल विदेशी होने के आधार पर प्रवेश नहीं मिलता था, किसी खास देश की नागरिकता के आधार पर नहीं. यहाँ तक कि कुछ जगहों पर दक्षिण कोरिया के पालनहार या मालिक अमेरिका के नागरिकों को भी नहीं. पता नहीं कब से वहाँ ये चलन शुरू हो गया कि कुछ खास देशों के लोगों को प्रवेश नहीं मिलेगा. दक्षिण कोरिया में नस्लीय घटनाएं जिस तरह से बढ़ रही है मुझे नहीं लगता है कि वहाँ के समाज में नस्लवाद को लेकर कोई गम्भीर बहस होगी. यहाँ तक कि वहाँ का प्रगतिशील और उदार कहा जाने वाला 20-30 आयु वर्ग भी बहुत तेज़ी से अनुदारवादी होता जा रहा है और वहाँ के सबसे बड़े अखबार चोसन इल्बो के अनुसार दक्षिण कोरिया के 20 आयु वर्ग का 37% विदेशियों पर बिलकुल भरोसा नहीं करता है. उसी वर्ग समूह का केवल 0.3% ही विदेशियों पर बहुत भरोसा करता है जो की सभी आयु वर्गों की तुलना में सबसे कम है (외국인 신뢰 않는다’ 20대가 가장 높아http://premium.chosun.com/site/data/html_dir/2017/03/27/2017032701560.html ). विश्व पूंजीवाद के दिन ब दिन गहराते संकट ने नफरत की राजनीति को एक नयी ऊँचाई दे दी है और पहले से ही घोर नस्लवादी और अनुदारवादी दक्षिण कोरियाई समाज इससे अछूता नहीं रह सकता था.
मेरी दिली इच्छा है कि उस भारतीय छात्र के साथ हुयी इस नस्लीय घटना के बाद सचमुच दक्षिण कोरिया के समाज में इस पर लेकर बहस हो और इस स्तर पर हो की वहाँ की सरकार को नस्लभेद से संबंधित कड़ा कानून बनाना पड़े और इसके साथ साथ लोगों में इसे लेकर जागरूकता फैलाई जाये. लेकिन अगर मैं अपने दक्षिण कोरियाई समाज के अनुभव के आधार पर कहूँ तो ये शेखचिल्ली के सपने से ज्यादा कुछ नहीं है. इसी साल मई में दक्षिण कोरिया में उदारवादी सरकार के आने से उम्मीद थी कि दक्षिण कोरिया में भेदभाव निरोधी कानून ( 차별금지법 ) बनाया जाएगा, लेकिन यह कानून दक्षिण कोरिया की तथाकथित “उदारवादी” और “प्रगतिशील” सरकार की प्राथमिकताओ में शामिल ही नहीं है , सरकार की तरफ से कहा गया कि देश के लिए प्राथमिकताएं तय करते वक्त इस कानून पर चर्चा तो हुई लेकिन ऐसा कानून बनाने से दक्षिण कोरियाई समाज में विवाद खड़ा हो सकता था , इसीलिए इसे प्राथमिकताओ में शामिल नहीं किया गया ('차별금지법' 100대 국정과제서 제외…왜? http://news1.kr/articles/?3054527 ). मानो जैसे दक्षिण कोरियाई समाज में भेदभाव को ही नियति मान लिया गया हो.
हरेक समाज में प्रगतिशील और उदार लोग होते हैं. दक्षिण कोरिया में भी हैं. लेकिन किसी समाज या देश की प्रगतिशीलता इस बात पर तय होती है की वहां प्रगतिशील संगठनो की राजनीतिक ताक़त कितनी है या समाज में उनका कितना व्यापक प्रभाव है . दक्षिण कोरिया की प्रगतिशीलता को एक लाइन में समझना है तो उसके लिए “अंधों में काना राजा” वाला मुहावरा एकदम सटीक है. उम्मीद है कि आप समझ ही गए होंगे की मैं क्या कहना चाहता हूँ. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार दक्षिण कोरिया के वामपंथी कहे जाने वाले संगठनो की तुलना विश्व के वामपंथी संगठनो से की जाये तो दक्षिण कोरिया का वामपंथ, दक्षिणपंथ के करीब है . जिस देश का शासन वामपंथ के विरोध और उसे मिटाने की बुनियाद पर ही टिका हो , उससे क्या उम्मीद की जा सकती है. कहने को तो दक्षिण कोरिया के हालिया राष्ट्रपति चुनाव में तथाकथित उदार और प्रगतिशील माने जाने वाले उम्मीदवार मून जे इन की जीत हुई है , लेकिन मून की छवि एक उदार दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ से ज्यादा कुछ नहीं है , और इसकी जीत का मतलब यह नहीं है कि दक्षिण कोरिया में प्रगतिशील राजनीति जीत गयी है , वो तो पूर्ववर्ती राष्ट्रपति पार्क कुन हे की करतूत ही ऐसी थी कि लोग काफी गुस्सा थे, और उस करतूत की मिसाल आधुनिक राजनीतिक इतिहास में विरले ही मिलती है कि जब एक देश के राष्ट्रपति ने अपने एक दोस्त को उसके किसी भी राजनीतिक या आधिकारिक पद पर न होने के बावजूद उसे ही अप्रत्यक्ष रूप से देश का शासक ही बना दिया था और उस राष्ट्रपति ने अपने अधिकारियों के सलाह लेने के बदले उस दोस्त के कहने पर शासन चलाया , जाहिर है पार्क की उस दोस्त का देश के शासन पर बहुत ही ज्यादा दखल था. ऐसी मिसालें तो 18-19 वीं शताब्दी में ही मिलती हैं. आप दक्षिण कोरिया के समाज को आधुनिक समझने की बहुत बड़ी भूल न करें, सिर्फ चमचमाती सडकें, इमारतें खड़ी करने, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, वाहन समुद्री जहाज बनाने और इन्टरनेट के विकसित हो जाने से मानसिकता विकसित नहीं हो जाती. ऊपर से आधुनिकता का लबादा ओढ़े दक्षिण कोरिया का तथाकथित हाईटेक समाज असल में निहायत ही सामंतवादी पिछड़ी सोच वाला है. एक विज्ञापन की प्रसिद्द पंक्तियाँ मैं आप लोगों से दक्षिण कोरिया के संदर्भ में कहना चाहूँगा और वे यह हैं
“दिखावों पर मत जाओ, अपनी अकल लगाओ!!”.
दक्षिण कोरिया के वर्तमान उदार दक्षिणपंथी मून जे इन की जीत भी मुश्किल ही थी अगर धुर दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी खेमा 3 उम्मीदवारों में न बंटता, अगर ये तीनो उम्मीदवार समझौता कर एक उम्मीदवार खड़ा कर देते तो उसकी अवश्य जीत होती. अब देखिये न औरतों के घर के काम को ईश्वर प्रदत्त कहने वाले और अपने कॉलेज के दिनों में दोस्त को नशे में धुत्त औरत का बलात्कार करने का तरीका बताने का गर्व से बखान करने वाले विरोधी धुर दक्षिणपंथी उम्मीदवार होंग जून फ्यो को राष्ट्रपति चुनाव में 24.03% वोट भी मिल जाते हैं, और दो अन्य विरोधी अनुदारवादी उम्मीदवारों को क्रमशः 21.41% और 6.76% मत मिले , राष्ट्रपति चुनाव में विजेता रहे उम्मीदवार को 41.08% मत मिले. अगर ये तीनो अनुदारवादी उम्मीदवार मिलकर संयुक्त रूप से अपना उम्मीदवार खड़ा कर देते तो अंदाजा लगा लीजिये जीत किसकी होती.
अगर दक्षिण कोरिया का वर्तमान राष्ट्रपति मून जे इन सचमुच में परिवर्तनकारी कदम उठाने लगा तो उसे अपदस्थ कर दिया जायेगा और आखिरी विकल्प के तौर पर वहां सैनिक शासन या सेना समर्थित शासन का विकल्प तो है ही .भारतीयों! बहुत सौभाग्यशाली हो कि भारतीय सेना का भारत की राजनीति में दखल न के बराबर है(अब मोदी जो न कराये). भारत में सैनिक शासन के समर्थक जरा किसी आम दक्षिण कोरियाई से पूछ लें कि सैनिक शासन होता क्या है? आप तो 1975 के आपातकाल और 2014 से मोदी सरकार द्वारा जनतंत्र की हत्या की कोशिश से विचलित हो, दक्षिण कोरिया में तो 3 दशकों से भी ज्यादा मोदीनुमा फासीवादी सरकार रही है. अभी भी दक्षिण कोरिया में कौन सी लोकतंत्र की जीत हो गई है. दक्षिण कोरिया के लोग अपने दैनिक जीवन में फासीवादी ही हैं. केवल 20 लाख लोगों के द्वारा मोमबत्ती जुलूस निकालने और महाभ्रष्ट राष्ट्रपति को अपदस्थ कर देने से ही सही मायनों में लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती.
दक्षिण कोरिया के लोग अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में कितने लोकतान्त्रिक हैं या लोकतान्त्रिक संस्कृति का कितना पालन करते हैं? दक्षिण कोरिया की जनता द्वारा सार्वजनिक रूप से जिस शिद्दत से राष्ट्रपति की आलोचना की गई क्या वो इतनी शिद्दत से ही सार्वजनिक रूप से अपने वरिष्ठों या अपने बॉस की आलोचना कर सकते हैं?
एक सच्चे लोकतान्त्रिक समाज की स्थापना लिए हमें अपने दिल के भीतर, परिवार में, कार्यस्थल पर भी लोकतंत्र की मांग करनी होगी, उसे लागू करना होगा और उसका पालन करना होगा. हमारे भीतर के सामंतवादी या फासीवादी शैतान को दूर भगाना होगा. लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं है , लोकतंत्र आम जिंदगी में हमारे व्यवहार से भी जुड़ा हुआ है और इसमें दूसरे व्यक्ति की परवाह करना , उसकी इज्जत करना , समाज के कमजोर तबकों के लिए सहानुभूति और उनसे एकजुटता का भाव रखना , अन्याय का पुरजोर विरोध करना इत्यादि शामिल हैं. अगर ये चीजें आपके भीतर नहीं है तब आप तानाशाह और क्रूर हो जाते हैं. दक्षिण कोरिया जैसे आधे अधूरे लोकतंत्र वाले देश के अलावा यही बात विश्व के तथाकथित सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े ढिंढोरची अमेरिका के संदर्भ में भी कही जा सकती है.
भारतीय समाज के कमजोर तबकों की हालत तो जगजाहिर है ही पर मैं यहाँ भारत से “विकसित” और “सभ्य” समझे जाने वाले दक्षिण कोरिया की एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा . खबर है कि दक्षिण कोरिया की राजधानी सीओल में साल 2002 के बाद विकलागों के लिए एक भी विशेष विद्यालय नहीं खुल पाया , इसकी वजह थी इलाके के निवासियों का पुरजोर विरोध , उनका कहना था कि उनके इलाके में ऐसे विद्यालय खुलने से उस इलाके की जमीन का भाव घट जाएगा("왜 우리 동네에 또" vs "장애인은 어디로"…'님비' 논란 재연http://www.yonhapnews.co.kr/bulleti... ). (इसके अलावा कमजोर तबके के लोगों को दक्षिण कोरियाई जैसे फासीवादी समाज में कैसे कुचला जाता है , उन सबको एक एक कर मैं इस लेख पर बता तो नहीं सकता) समाज के कमजोर तबकों के लिए “ हाई टेक” देश के लोगों की ऐसी समझ ! छी! छी! दक्षिण कोरियाई समाज इस तरह का ही “ लोकतांत्रिक” समाज है. और विरोध करने वालों में भी ऐसे लोग होंगे जो दक्षिण कोरिया के उस लोकतंत्र बचाओ वाले 20 लाख लोगों वाले मोमबत्ती जुलूस में शामिल होंगे, आखिर दोगलेपंथी पर केवल किसी खास देश या समाज का ही एकाधिकार तो है नहीं.
दक्षिण कोरियाई समाज शीतयुद्धकालीन मानसिकता का शिकार है. अभी भी दक्षिण कोरियाई समाज में प्रगतिशील सोच को एक बुराई और प्रगतिशील बातें करने वालों को शैतान की तरह समझा जाता है. इस समाज में बराबरी की बात तक करना एक सामाजिक वर्जना(टैबू) की तरह है. इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया की स्थापना के साथ ही “रेड काम्प्लेक्स”(दक्षिण कोरियायियों का कम्युनिज्म के प्रति नफरत या भय का भाव), आक्रामकता, स्व- सेंसरशिप(Self- Censorship) अदि की भावनाओ ने जड़ें जमाई . तानाशाही भावना घर कर गयीं और लोकतंत्र लोकतंत्रवादियों से विहीन हो गया और इस तरह दक्षिण कोरिया एक विकृत समाज और देश में तब्दील हो गया और उसका असर अभी भी बहुत ज्यादा है और ऐसे देश और समाज में नस्लवाद को लेकर गंभीर बहस होगी इसकी उम्मीद करना बेमानी है. दक्षिण कोरिया में एक तो पहले से ही कन्फ़्युसिअस के सामंतवादी विचारों का प्रभाव था और बाद में वहां की घोर प्रतिक्रियावादी साम्यवाद विरोधी शीतयुद्धकालीन राजनीति ने एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा वाली हालत कर दी.
दक्षिण कोरिया में रहते हुए मेरा एक बहुत बड़ा भ्रम टूटा कि वहां का युवा वर्ग अधेड़ या बूढ़े लोगों की तुलना में संकीर्ण सोच वाला नहीं है और बहुत प्रगतिशील है . इस पर मैंने अपने अनुभव की बात न करते हुए ऊपर मैंने एक अखबार के सर्वे का हवाला तो दिया ही है और अगर इसी युवा वर्ग की प्रगतिशीलता देखनी है तो इसी दक्षिण कोरियाई समाज के एक तबके जिसमें युवा वर्ग भी शामिल है , के द्वारा चलाये जा रहे एक वेबसाइट पर नज़र डाल लें. जो लोग दक्षिण कोरिया में हैं उन्होंने इल्बे(Ilbe, 일배) नाम सुना ही होगा, जिन्हें कोरियाई अच्छे से आती है वो जरा इनकी साईट http://www.ilbe.com/ पर जाकर देखें, माँ कसम मोदी भक्तों या उसकी ट्रोल सेना की याद नहीं आ गई तो कहना, जिन्हें कोरियाई नहीं आती है उनके लिए अंग्रेजी में नीचे सम्बंधित कुछ लिंक
https://introtokorea.wordpress.com/2015/02/20/what-is-the-ilbe-recent-issues-in-korea/
http://www.worldpolicy.org/blog/2015/06/05/online-offline-rise-ilbe
https://en.wikipedia.org/wiki/Ilbe_Storehouse
कभी दक्षिण कोरिया में सैनिक तानाशाही के खिलाफ और लोकतंत्र की स्थापना के लिए अपना सब कुछ त्याग कर अभी गुमनामी का जीवन बिता रहे लोगों से मिलने का मौका मिले तो उनसे जरुर मिलिएगा, ये सच्चे मायनों में प्रगतिशील लोग हैं. इसमें से कुछ लोग राष्ट्रपति या उच्च पदों पर भी रह चुके हैं लेकिन वहां तक पहुचने के बाद धोखेबाज बन गए.
इस लेख में मैं एक कोरियाई शख्स का जिक्र करना चाहूँगा , जिसने मेरा दक्षिण कोरिया को देखने का नजरिया ही बदल दिया.
बात तब की है जब मैं पहली बार दक्षिण कोरिया सितम्बर 2001 वहां की सरकार के स्कालरशिप पर 1 साल के लिए पढ़ाई करने पहुंचा था, भारत से ही किसी मेरे कोरियाई जानकार ने अपने एक कोरियाई परिचित का पता दिया था, उसी ने वहां मेरे रहने का इंतजाम किया और मेरा रूम मेट भी बना. जिस शख्स की मैं बात करना चाहता हूँ , वो हमारे बगल के कमरे में रहता था और मेरे रूममेट ने ही उसका परिचय मुझसे कराया. मैं क्लास से दोपहर को ही घर आ जाता था और मेरा रूममेट अपने काम पर गया रहता था , तो मैं उस शख्स के कमरे में चला जाता था , वह शख्स हफ्ते में कुछ दिन किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने का काम करता था , कोई पक्की नौकरी नहीं थी उसकी, अविवाहित भी था और मुझसे उम्र में 7 साल बड़ा था. उसने दूसरे दिन ही पूछा कि मैं दक्षिण कोरिया के बारे में क्या जानता हूँ, उस समय तक मुझे इतनी कोरियाई आ गई थी कि मैं लगभग किसी भी विषय पर बात चीत कर सकता था, मुझे याद है कि मैंने दक्षिण कोरिया जाने के कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि दक्षिण कोरिया की स्कूली शिक्षा व्यवस्था एशिया में सर्वश्रेष्ठ है तो मैंने इसी विषय से अपनी बात शुरू की, उस शख्स के चेहरे पर फीकी हंसी का भाव आया और उसने यह कहा कि जिस देश की स्कूली शिक्षा केवल देश के कुछ गिने चुने चोटी के विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए बच्चों का बचपन छीन लेती हो, उन्हें रट्टू तोता बना देती हो, उनके दिन रात के चैन और हंसी खुशी के अलावा कई बार उनकी जिंदगी ही लील लेती हो, वैसी शिक्षा व्यवस्था को कैसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है. मैंने उसे जेएनयू और अपनी राजनीतिक गतिविधि के बारे में बताया, तो उसने हँसते हुए मुझसे कहा कि तुम्हें पता है कि इस देश में अभी भी वामपंथी होना कानूनन जुर्म है, समय बीतने के साथ मैं दक्षिण कोरिया के वामपंथी विचार वाले लोगों से मिलने लग गया था और उनसे खुलकर मैं उनसे दक्षिण कोरिया जैसे देश के लिए राजनीतिक रूप से अंत्यंत संवेदनशील विषयों पर भी बात करने लगा (बाद में मुझे दक्षिण कोरियाई भूमिगत वामपंथी धड़े (National Liberation) {दक्षिण कोरियाई वामपंथ का दूसरा धड़ा People’s Democracy कहलाता है } के लोग भी मिले, जिनसे मेरी जान पहचान भारत के कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में कराई गई, जो मैं असल में था भी. उनसे मैंने कहा था कि भारत से मेरे साथियों ने मुझे उत्तर कोरिया पर लिखी किताबें नहीं लाने दिया , जबकि मैं समझता था कि उत्तर- दक्षिण कोरिया के बीच अब संबंध सुधर रहे हैं, क्योंकि जून 2000 में ही आधी सदी के बाद पहली बार उत्तर-दक्षिण कोरिया के राष्ट्राध्यक्षों के बीच एतिहासिक शिखर सम्मलेन हुआ था और दक्षिण कोरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा सनशाइन पालिसी की घोषणा हुई थी. उन लोगों ने यहाँ तक कहा कि सनशाइन पालिसी सब बकवास है, दक्षिण कोरिया जैसे देश की शासन की बुनियाद ही उत्तर कोरिया के विरोध और उससे नफरत पर ही टिकी हो, वह देश भला क्यों उत्तर कोरिया से संबंध ईमानदारी से सुधारेगा, और रही बात सनशाइन पालिसी की ये सब दक्षिण कोरियाई उदारवादियों का ड्रामा है और इनका मकसद किसी तरह उत्तर कोरिया को प्यार से अपने शिकंजे लेकर वहां सत्ता परिवर्तन कराना है और पूरे कोरिया को अमेरिकी साम्राज्यवाद को सौपने की तैयारी है, इसके अलावा दक्षिण कोरियाई पूंजीपति वर्ग की गिद्ध दृष्टि उत्तर कोरिया के कुशल और सस्ते श्रम और भरपूर प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी हुई है, उन्होंने यह भी कहा कि क्या मुझे लगता है कि दक्षिण कोरिया का राष्ट्रपति बिना अमेरिका की अनुमति के उत्तर कोरिया से संबंध सुधारने की हिमाकत करेगा. मैंने भारत स्थित उत्तर कोरिया के दूतावास में कई बार जाने की बात भी उन लोगों को बताई. उन्होंने मुझसे यह बात भी कही कि दुनिया में केवल इसराइल और दक्षिण कोरिया दो ही ऐसे देश हैं जिनका जन्म ही नफरत के आधार पर साम्राज्यवाद की गर्भ से हुआ है, भले ही उनका संविधान कुछ और कहता हो. मैं भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में उनका भरोसा जीत चुका था तभी उन्होंने मुझे ऐसी बातें बतायीं, नहीं तो किसी भी विदेशी को भी वो ये सब बातें यूँ ही नहीं बताते , क्या पता कोई विदेशी भी दक्षिण कोरिया की वामपंथ विरोधी सरकार से इनाम पाने के लालच में पुलिस को खबर कर इन्हें पकड़वा दे , इन लोगों ने भारत के लोकतंत्र की काफी तारीफ भी की , जहाँ सभी विचारधारा के लोग मुख्यधारा की राजनीति कर सकते हैं, मैंने भारत के लोकतंत्र की खामियों का जिक्र भी किया तो उन्होंने कहा कि अगर मैं दक्षिण कोरिया के एक सच्चे लोकतंत्रवादी की नजरिये से देखूं तो भारत का लोकतंत्र दक्षिण कोरिया के दिखावे वाले आधे अधूरे लोकतंत्र से कई गुणा बेहतर लगेगा ) उन लोगों ने यह भी कहा कि मैं एक असामान्य और अजीबोगरीब देश में आया हुआ हूँ जहाँ तथस्टता को भी शत्रुतापूर्ण नजरों से देखा जाता है. अब बात उस शख्स की , उस शख्स का पूरा परिवार अमेरिका में बसा हुआ था, यह अकेला दक्षिण कोरिया में पड़ा हुआ था , वजह पूछने पर उसने बताया कि यह सच है की उसके जैसे समझ वाले लोगों को दक्षिण कोरिया जैसे देश में रहने में बहुत मुश्किल होती है और देश का कानून भी उन जैसों के लिए दमनकारी है, लेकिन अगर ऐसे सारे लोग भाग कर विदेशों में रहने चले गए तो दक्षिण कोरिया को कौन सुधारेगा, इस तरह से वह घर वालों के बार बार अमेरिका बुलाने के आग्रह को ठुकराता रहता था. इसके अलावा उसी से मुझे दक्षिण कोरियाई समाज की कई बातें पता चली , जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है और इसे देखा और महसूस भी किया है. दिसम्बर 2001 में मैं तीन दिनों के लिए शहर से बाहर गया और वापस आया तो देखा कि उस शख्स ने घर छोड़ दिया था और कहीं दूर अनजान जगह पर चला गया था. मैंने उसका पता लगाने की बहुत कोशिश भी की. दक्षिण कोरिया के बारे में कही गई उसकी सारी बातें एकदम सच साबित हुईं. आज भी उस शख्स की याद आती है. केवल 2 महीनों में ही मेरे मन पर कितनी गहरी छाप छोड़ गया वो आदमी.
दक्षिण कोरिया इतना असामान्य देश है कि आज भी वामपंथ या मार्क्सवाद से संबंधित किताबों के होने और लोगों के पढ़ने और उसपर विचार विमर्श से ही डर जाता है, हालाँकि दक्षिण कोरिया में अब मार्क्सवाद से संबंधित कई किताबें दुकानों या पुस्तकालय में आराम से खोजी जा सकती हैं , लेकिन इसका प्रचार प्रसार करने वाले लोगों पर अभी भी वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर के मुकदमा चला दिया जाता है. ऐसी ही एक घटना मेरे दक्षिण कोरिया प्रवास के दौरान घटी , बात 28 अप्रैल 2003 की है जब मेरे विश्वविद्यालय से संबंधित इंजीनियरिंग कॉलेज के भूतपूर्व छात्र संघ के अध्यक्ष को मेरी आँखों के सामने सादी वर्दी में पुलिस ने उसके बाहर निकलते ही गिरफ्तार कर लिया(उसकी गिरफ्तारी की वजह उसका फीस वृद्धि का विरोध करना और उसका दक्षिण कोरिया के सबसे बड़े वामपंथी छात्र संगठन का कार्यकारी सदस्य होना था) , उस समय मैं भी अन्य दक्षिण कोरियाई साथियों के साथ उसका एक जगह इंतज़ार कर रहा था , तभी एक साथी दौड़ता हुआ आया और बताया कि कुछ लोग उसे जबरदस्ती खीचकर एक गाड़ी में उसे कहीं ले जाने की कोशिश कर रहे है. जब हम वहां पहुंचे तो पता चला कि सादी वर्दी में पुलिस है, कुछ लोग पुलिस से उलझ रहे थे , और कुछ लोग ऐसी आशंका कर रहे थे कि हो सकता है कि पुलिस उनके ठिकानों पर भी छापा मार सकती है क्योंकि उनके यहाँ ढेर सारा मार्क्सवादी साहित्य पड़ा हुआ है , मुझे बड़ा झटका लगा कि सैनिक तानाशाही ख़तम होने के बाद भी तथाकथित “उदारवादी लोकतंत्र” बहाली वाले दक्षिण कोरिया में वह भी तत्कालीन “उदारवादी” शासन के दौरान यह सब हो रहा है , मेरे दिमाग में एक आईडिया आया , मैंने उनसे कहा कि मुझे बताओ वो किताबें कहाँ रखी हैं , मैं उसे सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचा दूंगा, मैं विदेशी हूँ तो रास्ते में पुलिस मुझ पर शक नहीं करेगी , उन्हें मेरा यह आईडिया जंचा और उन्होंने मुझे जल्दी जल्दी अपने ठिकाने पर ले जा कर ढेर सारी किताबें एक बड़े बैग में भरकर दे दीं, कसम से उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं कोई स्वतंत्रता सेनानी हो गया हूँ , जो दक्षिण कोरिया के क्रांतिकारियों की उनके असली स्वतंत्रता संग्राम( दक्षिण कोरिया के अमेरिकी कब्जे से मुक्ति और वहाँ के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को हटाने वाली) में मदद कर रहा हूँ. मुझे रास्ते में सादी वर्दी में पुलिस वालों ने भी देखा होगा, लेकिन मेरी चाल सधी हुई देख कर और मेरे विदेशी होने की वजह से उन्हें शक नहीं हुआ होगा , मुझे वो किताबें अपने विश्वविद्यालय के छात्र संघ के कार्यालय पहुंचानी थी , जब मैंने छात्र संघ कार्यालय पहुंचकर किताबें निकलकर देखीं तो और भी सकते में आ गया . उन किताबों में मार्क्स और एंगेल्स की “दास कैपिटल” , मैक्सिम गोर्की की “माँ” , लेनिन की “राज्य और क्रांति” E.H. कार की “रुसी क्रांति का इतिहास” जैसी दुनिया के घोर पूंजीवादी देशों में भी सहज रूप से पढ़ी जाने वाली किताबें थीं. वैसे लेनिन की “राज्य और क्रांति” का कोरियाई संस्करण मेरे पास भी था , जिसे मैंने दक्षिण कोरिया से ही एक किताब की दुकान से इस घटना के एक साल पहले ही ख़रीदा था. दक्षिण कोरियाई सरकार वाकई में दुनिया के सामने वाकई बहुत दिखावा करती है, जो किताब सहज रूप से दक्षिण कोरिया में खरीदी जा सकती है , उसके लिए इतना हाय तौबा मचाना समझ में नहीं आता .लीजिये इसी साल जनवरी 2017 में ऑनलाइन लाइब्रेरी “मजदूर की किताब” (노동자의 책) चलाने वाले एक शख्स को दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति सुरक्षा कानून के तहत इसीलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य इंटरनेट पर डाला था और उनमें वो सब किताबें भी थीं , जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है. हालाँकि दक्षिण कोरिया की अदालत ने इसी 20 जुलाई 2017 को उन्हें दोषमुक्त कर रिहा कर दिया. सोचने वाली बात है कि दक्षिण कोरिया में इस दौर में भी ऐसी घटनाएँ होती हैं. रही बात पिछले साल वाली दक्षिण कोरिया के मोमबत्ती जुलूस की तो उसका मकसद केवल महाभ्रष्ट राष्ट्रपति को हटाना ही था और अब उसी मोमबत्ती जुलूस के दम पर जीते वर्तमान दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन की हरकतें धीरे धीरे उसी पूर्ववर्ती महाभ्रष्ट राष्ट्रपति वाली होती जा रही है , और अभी इसी 1 अगस्त 2017 को दक्षिण कोरिया के बिना बाहरी किसी हस्तक्षेप के कोरियाई प्रायद्वीप के एकीकरण समर्थक और उत्तर कोरिया के बारे में लगभग निष्पक्ष सोच वाले एक इन्टरनेट आधारित अखबार के संचालक के घर पर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के उल्लंघन के आरोप में पुलिस द्वारा छापेमारी की गई और वहां के कंप्यूटर और संचालक के मोबाइल को जब्त कर उसके अन्दर के डाटा को पुलिस द्वारा कॉपी किया गया और कुछ किताबें भी जब्त की गईं (경찰, <자주시보> 김병길 대표 ‘보안법 위반’ 자택 압수수색 http://m.minplus.or.kr/news/article... ) दक्षिण कोरिया के लोकतंत्र की जय बोलने वालों इस पर क्या बोलते हो? दक्षिण कोरिया के वर्तमान “उदारवादी” राष्ट्रपति मून जे इन के बारे में अब लोग भी कहने लग गए हैं कि इसने मोमबत्ती जुलूस वाले जनादेश और खुद के वादे के साथ ही नीतीशबाजी ( धोखेबाजी के लिए मेरा नया शब्द) करना शुरू कर दिया है.
दक्षिण कोरियाई समाज का संकीर्ण राष्ट्रवाद भी एक विकट समस्या है और वहां नस्लवाद को बढ़ावा देता है . बहुत से दक्षिण कोरियाई अपने आप को शुद्ध रक्त के पूर्वजों का वंशज मानते हैं और अपने आप को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ नस्ल मानते हैं. भारत के संघी भारत के विश्वगुरु होने की बात करते हैं और दक्षिण कोरियाई संघी तो यह दावा करते हैं कि सिर्फ कोरियाई नस्ल ने ही भारत समेत पूरी दुनिया में सभ्यता की स्थापना की .
दक्षिण कोरियाई संघी विचारकों के अनुसार पहले कोरियाई लोग पहले मध्य एशिया में रहते थे वहां से वो चीन गए और चीनी लिपि और सभ्यता का निर्माण किया, कोरियाई लोग फिर बेरिंग ज़मीनी पुल(Bering land bridge) (जो एशिया के सुदूर पूर्वोत्तर के साइबेरिया क्षेत्र को उत्तर अमेरिका के सुदूर पश्चिमोत्तर अलास्का क्षेत्र से जोड़ता था) पार कर अमेरिकी महाद्वीप पहुंचे और मूल अमेरिकी संस्कृति की स्थापना की , कोरियाई लोग भारतीय उपमहाद्वीप आये और वहां सिन्धु घाटी सभ्यता की स्थापना की , उसी तरह कोरियाई लोगों ने ही आज के मध्य पूर्व में जा कर मेसोपोटामिया और नील नदी की सभ्यता की स्थापना की और जाहिर सी बात है की कोरियाई लोग आज के कोरिया प्रायद्वीप में आये जहाँ इनकी नस्ल शुद्ध रही और उन्होंने कोरिया की स्थापना की. कुछ साल पहले तक दक्षिण कोरिया में एक डाक्यूमेंट्री बनायीं गई थी जिसे पहले दक्षिण कोरिया के प्रमुख चैनल केबीएस(Korean Broadcasting System) पर प्रसारित किया गया था और यह यू टयूब पर भी उपलब्ध था , जिसमें इसी बात को दिखाया गया था कि कोरियाईयों ने ही दुनिया में सभ्यता की स्थापना की, अभी यू टयूब पर यह विडियो नहीं है , लेकिन Korean master race brought civilization to the world करके सर्च करेंगे तो इसी डाक्यूमेंट्री के शुरुआती 6 मिनट का विडियो मिल जायेगा , इसमें अंगेरजी के सबटाईटल भी हैं. मैं लिंक देता हूँ http://www.dailymotion.com/video/xzj4ix_ancient-korean-empire-hwanguk_people
इसके अलावा एक तस्वीर भी है लेकिन इसकी व्याख्या कोरियाई और जापानी भाषा में है , जिसमें नक्शे के माध्यम से यह दिखाया गया है की कैसे कोरियाई लोगों ने दुनिया के अलग अलग हिस्सों में सभ्यता की स्थापना की, यह तस्वीर ब्रेन कोरिया प्लस (BK 21 PLUS) , जिसकी स्थापना दक्षिण कोरिया सरकार द्वारा तथाकथित रिसर्च के लिए की गई थी , के द्वारा तक़रीबन 10 साल पहले बनायीं गई थी. तस्वीर नीचे.
एक और विडियो है, जिसमें कोरियाई भाषा में अजीबोगरीब तर्क दिया जा रहा है की सुमेर सभ्यता की स्थापना प्राचीन कोरिया द्वारा की गयी थी. और भारत में सुमेर से आये आर्य कोरियाई लोगों के वंशज ही थे. कैसी लगी इतिहास की ये जानकारी ???
तो भारतीय संघियों! दक्षिण कोरियाई संघियों से भिड़ने के लिए तैयार हो जाओ और दिखा दो कि कौन कितना जाहिल है.
और दक्षिण कोरिया में रह रहे आप लोगों से कहना चाहता हूँ कि देर सवेर आपका सामना ऐसे दक्षिण कोरियाई संघी जाहिलों से हो सकता है, अगर वो ये बात बोलें तो कि कोरियाई लोग ही पुरे विश्व में मानव सभ्यता के जनक हैं तो आश्चर्य मत करना और ये मत कहना कि पहले नहीं बताया था. दक्षिण कोरियाई ऐसे ही नस्लवादी नहीं बनते. ये बात अलग है कि ऐसे दक्षिण कोरियाई अमेरिकियों के सामने दुम हिलाते हैं और एशियाई और अफ़्रीकी लोगों पर भूंकते हैं.
दक्षिण कोरिया में प्रवास के दौरान व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ ऐसी घटना तो नहीं हुई थी कि मुझे मेरी राष्ट्रीयता के आधार पर किसी बार या क्लब में प्रवेश नहीं मिला था. एक बार नस्लीय घटना जरुर हुई थी जिसका जिक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा. वह मई 2005 की एक शाम थी. मैं अपने जेएनयू के दक्षिण कोरिया में अध्ययनरत तीन अन्य भारतीय मित्रों के साथ उनके हॉस्टल के करीब एक पार्क में घूम रहा था , तभी मुझे किसी ने पीछे से धक्का दिया , ज्यादा जोर का नहीं था , मैंने पलटकर देखा तो एक नशे में थोड़ा सा धुत्त एक कोरियाई शख्स था, मैंने जैसे ही प्रतिक्रिया दी , अंग्रेजी में ही बोला था, तभी उस शख्स के मुंह से नस्लवादी गालियों की बौछार शुरू हो गयी, हम चारों ने फैसला लिया कि इससे कोरियाई में बहस नहीं करना है और न कानून हाथ में लेना है. एक साथी को हमने पुलिस को बुलाने भेज दिया, और बाकी हम तीन बेंच पर बैठ गए , और वह शख्स और उग्र होता चला गया , उसने एक कूड़ेदान को उठाते हुए यह कहा की यह दक्षिण कोरिया है यहाँ से चले जाओ, हमारी हंसी फूट पड़ी और उससे हिंदी में ही कहा की हाँ दक्षिण कोरिया एक कूड़ेदान ही तो है, हमें हँसते देख वो और भड़क गया और कूड़ेदान को हमारी तरफ फेंकने की कोशिश की , हमने आपने आप की बचा लिया , आस पास से काफी लोग गुजर भी रहे थे , लेकिन कोई हमारे पास मदद करने नहीं आया, वह हमें बार बार भड़का रहा था , हम चाहते तो उसकी जबरदस्त ठुकाई कर सकते थे , लेकिन हमने पुलिस का इंतज़ार किया, जब पुलिस आई तो वह और भड़क गया और पुलिस से ही गाली गलौज करने लगा कि तुम कोरियाई पुलिस भी इन मल्लेछ विदेशियों की मदद करने आये हो , और उसने एक पुलिसवाले पर हमला भी कर दिया, पुलिस भी समझ चुकी थी की मामला गंभीर है , पुलिस वालों ने उसको हथकड़ी लगा दी और उस क्रम में उसने पुलिसवालों से मार पीट करने की कोशिश की. पुलिसवाले मुझे अपने साथ घटना की जानकारी और बयान लेने के लिए पास के थाने में ले गए , पुलिस की गाड़ी में भी ये शख्स नस्लवादी गलियां दिए जा रहा था , और एक बात बोल रहा था , जिसका जिक्र मैंने अभी ऊपर में किया है , वह ये कह रहा था कि हम कोरियाई पूरी मानव सभ्यता के जनक रहे हैं , और आज के विदेशियों के पूर्वज रहे हैं और इन्होने हमारी रक्त शुद्धता को बरकरार नहीं रखा , इन्हें सबक सिखाना ही होगा और पूरी दुनिया में हमारी रक्त शुद्धता फिर से लानी होगी. मैं भी पहली बार ये सब बातें सुन रहा था . थाने पहुंचकर मैंने जैसे ही कोरियाई में बयान देना शुरू किया , ये शख्स और भड़क गया कि मुझे कोरियाई भी आती है, और उसने एक पुलिसवाले को हथकड़ी पहने हुए ही जोर से धक्का देकर गिरा दिया और टेबल की तरफ बढ़ा, अब पुलिसवालों से रहा नहीं गया , उन्होंने थाने का सीसीटीवी कैमरा बंद किया और उस शख्स की लात घूसों और डंडे से जमकर ठुकाई की और उसे अधमरा ही कर दिया. एकदम भारतीय पुलिस थाने वाला ही दृश्य था .उसी वक़्त पुलिस से मुझे पता चला कि दक्षिण कोरिया में कोई नस्लवाद विरोधी कानून नहीं है , इसीलिए उसे इसके लिए कोई सजा नहीं दी जा सकती ,लेकिन इस शख्स ने सार्वजनिक जगह पर हिंसा भड़काने की कोशिश की और पुलिसवालों पर भी हमला किया , इसीलिए इसे जेल भेजा जायेगा. मैंने भी सोचा की इसे किये की सजा मिल चुकी है , इतना ही काफी है , नस्लवादी गन्दगी एक दिन में ऐसे लोगों के दिमाग से तो निकली नहीं जा सकती न. उस वक़्त सोशल मीडिया आज की तरह इतना प्रभावशाली भी नहीं था. बाद में मैंने कोरियाईयों के मानव जाति के पूर्वज होने की बात की बाद में छान बीन की तो पता चला कि दक्षिण कोरिया के संघी टाइप के इतिहासकारों द्वारा इस प्रकार का दावा किया गया है और इसको मानने वाले दक्षिण कोरियाईयों की अच्छी खासी तादाद है.
ये बात अलग है कि इसमें से कई लोग विदेशियों के सामने हंसी और मजाक का पात्र नहीं बनने के लिए अपने इतिहास कि ये हास्यास्पद व्याख्या नहीं करते होंगे. और गनीमत है की दक्षिण कोरिया के स्कूलों में इस तरह का इतिहास नहीं पढ़ाया जाता, नहीं तो इसके लिए दक्षिण कोरिया अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के सामने और भी मजाक और निंदा का पात्र बन जाता .
दक्षिण कोरिया के लोगों कि शुद्ध नस्ल की अवधारणा का मेरे अंतर्राष्ट्रीय संबध के गाइड प्रोफेसर अपनी क्लास में खूब धज्जियाँ उड़ाया करते थे. अमेरिका में काफी लम्बा पढ़े थे और सोचते भी अमेरिकियों की तरह ही थे , नहीं तो कई दक्षिण कोरियाई अमेरिका में सालों रहने के बावजूद शुद्ध नस्ल की अपनी संकीर्ण सोच से बाहर निकल ही नहीं पाते क्योंकि ज्यादातर दक्षिण कोरियाई अपने को एक नस्ल और शुद्ध रक्त का मानते हैं और इसी वजह से अपने को दूसरी नस्लों की तुलना मैं उच्चतर समझते हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की नस्लीय भेदभाव उन्मूलन समिति (Committee on the Elimination of Racial Discrimination, CERD) ने 2007 में कहा था कि दक्षिण कोरिया की एक नस्ल की अवधारणा अंतर्राष्ट्रीय मानदंडो के अनुसार नस्लीय भेदभाव है, और चेतावनी भी दी थी कि दक्षिण कोरिया कि सरकार को दूसरे देश के लोगों के प्रति भेदभाव को समाप्त करने के लिए आगे आना चाहिए नहीं तो संकीर्ण राष्ट्रवाद कि सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता(폐쇄적 민족주의 벗어나 열린 민족주의로 https://www.newscj.com:450/news/art...). इस बात को 10 साल बीत गए , लेकिन दक्षिण कोरियाईयों के संकीर्ण राष्ट्रवाद में कोई कमी नहीं आई है उलटे और विकसित हो रही है. अब ये राष्ट्रीयता के आधार पर प्रवेश न देने का मसला देख लीजिये. पहले सिर्फ विदेशी होने के नाम पर भेदभाव और अब राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव. दक्षिण कोरिया के ग्रामीण क्षेत्रों में मिश्रित नस्ल के बच्चे अच्छी खासी संख्या में मिल जायेगे , वे दक्षिण कोरिया के ही बच्चे हैं और देश के भविष्य हैं लेकिन उनके साथ हो रहा भेदभाव देख लीजिये. अजी मिश्रित नस्ल को छोड़ भी दिया जाये तो ये दक्षिण कोरियाई लोगों का अपने ही नस्ल के उत्तर कोरियाई शरणार्थियों के प्रति उपेक्षित रवैया और उनके साथ हो रहे भयंकर भेदभाव पर भी नजर डाल लीजिये . दुनिया अब बहुसांस्कृतिक होती जा रही है और दूसरी संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखना मानव होने की निशानी है लेकिन लगता है दक्षिण कोरियाईयों का अभी भी इससे 36 का आंकड़ा है. अजी संकीर्ण और घोर नस्लवादी दक्षिण कोरियाइयों को तो छोड़िये, हमारे बहुसांस्कृतिक भारत के क्या हाल हैं? हम अपने देश की विभिन्न संस्कृतियों का कितना सम्मान करते हैं? विदेशी खासकर अफ्रीकी छात्रों और अपने देश के लोगों खासकर उत्तर पूर्व के लोगों और उनके खान पान और संस्कृति के बारे में हम कैसी सोच रखते हैं ये भी आपको बताना पड़ेगा? हमारी राष्ट्रीय एकता का घोर शत्रु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ती स्वीकार्यता और गाय, गोबर और गौमूत्र की राजनीति ऐसे ही नहीं परवान चढ़ रही है.
मैं दक्षिण कोरिया के अधिकांश लोगों के संकीर्ण राष्ट्रवाद, उनकी नस्लवादी सोच की पुरजोर आलोचना जरुर करता हूँ, लेकिन उनके खान पान और उनकी संस्कृति के अच्छे तत्वों (आधुनिक दक्षिण कोरिया के कई चीजों की नहीं जैसे K-POP वैगेरह, हाँ K-POP के चिकने चुपड़े चेहरों से मेरी सहानुभूति है, क्योंकि अंत्यंत ही शोषणकारी दक्षिण कोरियाई संस्कृति के तहत उनका उनके एंटरटेनमेंट कंपनी और उसके मैनेजरों और मालिकों द्वारा बहुत भयानक शोषण होता है ) की एकतरफा आलोचना भी बर्दाश्त नहीं करता हूँ. एक उदाहरण देना चाहूँगा, मुझे कुत्ते का मांस बहुत पसंद है.(मैं अपने अब तक के जीवन के 39 वर्षों के शुरुआती 17 सालों तक कट्टर शाकाहारी रहा हूँ, मिडिल स्कूल के ज़माने से दुनिया के विभिन्न देशों और संस्कृतियों को जानने की उत्कट इच्छा ने मेरे भीतर यह सोच विकसित की कि विभिन्न संस्कृतियों के खान पान को सहर्ष अपनाने से उस संस्कृति से निकटता दूसरे अवयवों की तुलना में ज्यादा प्रगाढ़ होती है , आप किसी भी समुदाय का खाना सहज भाव से खाएं फिर उनकी प्रतिक्रिया देखें, कितने खुश होते हैं . मैं दुनिया के किसी भी समुदाय के खान पान को कभी ख़राब नहीं कहता, या उनके खान पान का कभी मजाक उड़ाता हूँ, किसी के खान पान को ख़राब कहना या उसका मजाक उड़ाना एक किस्म का नस्लवाद ही है ) पहली बार दक्षिण कोरिया में ही इसका सेवन किया तो अबतक खाए गए दूसरे मांस की तुलना में बहुत स्वादिष्ट लगा. मैं कुत्ते का मांस का दीवाना हो गया और अंदाजन दक्षिण कोरिया में रहते हुए मैंने 10-11 के करीब कुत्ते खा लिए होंगे. मुझे पता था और देखा भी था कि कोरियाई लोग पालतू कुत्तों को पकड़कर नहीं खाते हैं. जैसे केवल मांस के लिए मुर्गे या अन्य जीव रखे जाते हैं, वैसे ही कोरिया में सिर्फ मांस के लिए कुत्तों को भी रखा जाता है. और कोरिया के अलावा चीन, भारत, इंडोनेशिया ,फ्रेंच पोलिनीसिया, फिजी , हवाई न्यूजीलैंड के माओरी आदिवासियों के द्वारा कुत्ते के मांस का सेवन बड़े चाव के साथ किया जाता है. मुझे कुत्ते का मांस खाते देखकर दक्षिण कोरियाईयों और दूसरे देश के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और कहा पहला भारतीय देखा जो कुत्ते का मांस चाव से खा रहा है मैंने जवाब दिया भारत में भी कुत्ता खाते हैं और जिस इलाके में खाते हैं उस इलाके के लोग भी उतने ही भारतीय हैं जितने हम हैं. इसीलिए मैं केवल तंदूरी चिकेन ही नहीं कुत्ते के मांस को भी भारतीय व्यंजनों में शुमार मानता हूँ. इसके अलावा मैंने उनका ये भ्रम भी दूर किया कि भारतीय बीफ और पोर्क नहीं खाते. मैंने दक्षिण कोरियायियों और अन्य देशों के लोगों के बीच हमेशा भारत की बहुसंस्कृति के बारे में बताया और उसका प्रचार किया और कहा कि भारतीय लोगों के खान पान कि आदत और बाकी चीजों के लिए आपकी जो समझ है वह केवल उत्तर भारत के कुछ घनी जनसंख्या वाले राज्यों के समाज पर आधारित है , भारत में जनसंख्या के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के कारण अधिक जनसंख्या वाले राज्य राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हो जाते हैं और देश के शासन पर उनका हमेशा से दबदबा रहा है तो इसीलिए वो अपने समाज कि संस्कृति को ही भारत की संस्कृति के रूप में प्रचार करने लगते हैं और राजनीतिक रूप से कमजोर राज्यों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता जो कि बिलकुल गलत है. अगर सचमुच भारत की विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर होता तो तंदूरी चिकेन की तरह ही कुत्ते , गाय या भैस , सूअर के मांस का व्यंजन को भी भारतीय व्यंजन समझा जाता.
बहरहाल 2002 में जापान- दक्षिण कोरिया द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित फीफा विश्व कप के दौरान कोरिया में कुत्ते खाए जाने का मसला पश्चिमी देशो द्वारा उठाया गया और मैंने कोरियाई लोगों के कुत्ते का मांस खाने के अधिकार का जम कर समर्थन किया और पश्चिमी देशों द्वारा कोरियाई लोगों के कुत्ते खाने की आलोचना को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कहकर कड़ी निंदा भी की. इस मुद्दे पर मेरी कई तथाकथित दक्षिण कोरियाई प्रगतिशील विचार वाले मित्रों से काफी अनबन भी हुई जो कुत्ते के मांस के मसले पर पश्चिमी देशो के विचार का समर्थन कर रहे थे.
दक्षिण कोरिया में संकीर्ण राष्ट्रवाद केवल वृद्ध और अधेड़ आयु वर्ग वाले अनुदारवादी वर्ग तक ही सीमित नहीं है बल्कि प्रगतिशील और उदारवादी माने जाना वाला दक्षिण कोरियाई युवा वर्ग भी इसका भयंकर रूप से शिकार है. मैंने भी यह बात शिद्दत से महसूस की है. आप जापान को दो गाली दे दो साथ में अमेरिका और चीन को भी लपेट लो , और दक्षिण कोरिया की तारीफ कर दो , फिर देखो आपकी कैसी वाह वाह करते हैं ये लोग, ये बात अलग है कि आपके पीठ पीछे आपकी हंसी भी उड़ाते हैं ऐसे युवा दक्षिण कोरियाई चुगलखोर. इनके संकीर्ण राष्ट्रवाद का शिकार होते होते मैं भी बचा था और इसपर दक्षिण कोरियाईयों को खूब लताड़ता भी था. जून 2002 का एक वाकया याद आ रहा है , जब जापान और दक्षिण कोरिया ने संयुक्त रूप से विश्व कप फुटबॉल की मेजबानी की थी और दक्षिण कोरिया की टीम शानदार प्रदर्शन करते हुए सेमीफाइनल तक पहुँची थी. मैं ब्राज़ील फुटबॉल टीम का समर्थक रहा हूँ और उन दिनों ब्राजीली फुटबॉल टीम की जर्सी पहनकर घूमता था. एक जगह कोरियाई लोगों की टोली अपने फुटबॉल टीम के समर्थन में जुलुस निकाल रही थी, मुझपर नजर पड़ी तो कुछ लोग मेरे पास आ गए और टूटी फूटी अंगेरजी में बहुत आक्रामक ढंग से कहने लगे कि मैं दक्षिण कोरिया में हूँ तो मुझे कोरियाई फुटबॉल टीम का ही समर्थन करना चाहिए , उन्ही में से एक- दो लोग कोरियाई में कहने लगे कि इसकी ब्राजीली टीम वाली जर्सी उतरवाकर कोरियाई टीम की जर्सी पहना देते हैं, गद्दार है ये दक्षिण कोरिया में रहता है और समर्थन दूसरी टीम का करता है. मैं भी ताव में आ गया और कोरियाई में बोला कि मैं एक विदेशी हूँ और तुम्हें जबरदस्ती ये तय करने का अधिकार नहीं है कि मैं किसका समर्थन करूँ और गरमागरमी होने लगी . गुजर रहे कुछ दूसरे लोगों ने मामला शांत कराया तो वो लोग शांत हुए. मैं काफी गुस्से से भरा हुआ था और जाते जाते अपने बीच की उंगली उठाई और अंग्रेजी में चिल्लाते हुए कहा कि सेमीफाइनल में हारोगे. खैर दक्षिण कोरियाई टीम सेमीफाइनल में जर्मनी से हारी ही और बाद में तीसरे स्थान के लिए हुए मैच में तुर्की ने भी उसे धो दिया.
दक्षिण कोरिया और जापान के बीच एक टापू है जिसपर दावे को लेकर दोनों देशों में विवाद है. इस टापू को कोरियाई में दोकदो और जापानी में दाकेशिमा कहा जाता है. इसी दोकदो पर जापान जब भी अपना दावा पेश करता है तो दक्षिण कोरिया में अंधराष्ट्रवाद की लहर फैलाई जाती है. जिसका भी दावा सही हो लेकिन इसमें दक्षिण कोरिया में रह रहे विदेशी छात्रों को भी लपेट लिया जाता है कि दोकदो के मामले में दक्षिण कोरिया का समर्थन करो. अपने अंधराष्ट्रवाद के लिए विदेशी छात्रों का उपयोग करना कहाँ तक जायज़ है? आम जापानी लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है कि दोकदो किसका है और ये संकीर्ण सोच वाले दक्षिण कोरियाई, जापानियों खासकर जापान में रह रहे दक्षिण कोरियाई मूल के लोगों को अपना निशाना बनाते हैं. मेरे एक दक्षिण कोरियाई मूल के जापानी दोस्त के साथ भी ऐसा ही हुआ था , तब मैंने और सचमुच में प्रगतिशील सोच रखने वाले एक कोरियाई दोस्त ने उसे एक क्लब में अंधराष्ट्रवादियों से पिटने से बचाया था. दोकदो की वजह से मेरी कुछ दक्षिण कोरियाई लोगों , जो अपने आप को प्रगतिशील मानते थे , से दोस्ती टूटी. क्योंकि मुझसे वो बात बात पर दोकदो के लिए समर्थन मांगते थे और मैंने यह कहा था कि जापान और दक्षिण कोरिया के बीच दोकदो का मसला एक कूटनीतिक मसला है और केवल भावनाओं से ही कूटनीतिक मसले हल नहीं किये जा सकते. लेकिन वो तो मुझसे बिना शर्त दक्षिण कोरिया के लिए इस मसले पर मेरा पूर्ण समर्थन चाहते थे. जापान और दक्षिण कोरिया के बीच दोकदो को लेकर जो विवाद है उसकी जड़ दोनों देशों का आका अमेरिका ही है , और दोकदो के मसले पर अमेरिका जापान का ही पक्ष लेगा क्योंकि जापान अमेरिका का पूर्वी एशिया में प्रमुख सहयोगी है. अमेरिका तो दक्षिण कोरिया का सिर्फ इस्तेमाल कर रहा है, और तो और दक्षिण कोरियाईयों खासकर युवाओं के जापान विरोध नहीं अंधविरोध का यह आलम है कि ये जापान में जापानी कंपनियों के लिए काम करने के लिए मरे जा रहे हैं और 2008 से जापान में काम करने वाले दक्षिण कोरियाईयों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और जापान में विदेशी मजदूरों की संख्या के हिसाब से दक्षिण कोरियाई 6वें नंबर पर हैं ("능력만 보고 뽑아줬어요"…韓 대졸자 日기업 취업 열풍http://news1.kr/articles/?3043206 ). इनमे से कई ऐसे भी होंगे जो विदेशियों के सामने दोकदो का झंडा बुलंद किये रहते हैं और जापान के बहिष्कार की बात करते हैं . दक्षिण कोरिया में पढ़ने वाले कई भारतीय छात्र ऐसे होंगे जो अंधराष्ट्रवाद को एक बीमारी समझते होंगे , उनसे कहना चाहता हूँ कृप्या दक्षिण कोरियाईयों के ऐसे अंधराष्ट्रवाद की चपेट में ना आयें. ऐसे दक्षिण कोरियाई अंधराष्ट्रवादी आपको जापान का विरोध करने कहेंगे और ये खुद ही जापान में नौकरी करने के लिए जीभ लपलपाए हुए हैं .
सच कहूँ तो मैं कोरियाई भाषा पढ़ने के शुरुआती कुछ सालों तक दक्षिण कोरिया से बड़ी सहानुभूति रखता था कि यह देश भी हमारी तरह एक बर्बर साम्राज्यवाद से पीड़ित देश रहा है और जापानी साम्राज्यवाद के कोरिया पर किये गए वीभत्स अत्याचारों की दास्तानों ने मुझे काफी व्यथित कर दिया था और मुझे जापान से नफरत होने लगी थी. हालाँकि मैं अभी भी जापानी साम्राज्यवाद के उतना ही खिलाफ हूँ. लेकिन 1965 से लेकर 1973 तक चले वियतनाम के साम्राज्यवाद विरोधी जनयुद्ध में दक्षिण कोरिया के तीन लाख से ऊपर सैनिकों की भागीदारी और विएतनामी जनता के प्रति उनकी भीषणतम बर्बरता ने मुझे फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया और दक्षिण कोरिया के प्रति मेरी रही सही सहानुभूति भी ख़तम हो गई (वहाँ के मजदूर आन्दोलन और बेहतर समाज के लिए लड़ रहे जनसंगठन और उसके कार्यकर्ता इसके अपवाद हैं और मैं उनका पुरजोर समर्थन करता हूँ ). दक्षिण कोरियाई सैनिकों ने विएतनामी औरतों का वीभत्स बलात्कार करने के अलावा कई बच्चों जिसमें नवजात बच्चे भी शामिल थे को जिन्दा जलाने के साथ साथ हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों को निर्ममतापूर्वक मार डाला. यही नहीं दक्षिण कोरियाई पिट्ठू सैनिकों ने कई निर्दोष और निहत्थे ग्रामीणों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर, अगले दिन मृतकों की कब्रों को तोड़कर लाशें निकालकर फिर उन लाशों के ऊपर फिर बुलडोज़र चलकर बुरी तरह क्षत विक्षत करने का अंत्यंत ही हैवानियत वाला भी काम किया . यह देख के सुकून मिलता है कि बहादुर वियतनामी जनता ने दक्षिण कोरियाई पिठ्ठूओं और उसके मालिक अमेरिका को बहुत बुरी तरह से पराजित कर दिया. ये बेशर्म दक्षिण कोरियाई जापान से उसकी करतूतों के लिए माफ़ी की मांग करते हैं और वियतनाम में इनके सैनिकों की करतूतों पर चुप्पी साध लेते हैं. दक्षिण कोरिया में सही मायनों में कुछ प्रगतिशील जनसंगठनों को छोड़कर कोई भी इस मसले पर बात नहीं करता है, क्यूँ करेगा अपने पिठ्ठू दक्षिण कोरिया की वियतनाम युद्ध में उसकी सेवा को देखकर मालिक अमेरिका बहुत खुश हुआ और भिखारी दक्षिण कोरिया को मालामाल कर दिया और परजीवी दक्षिण कोरिया अमेरिकी साम्राज्यवाद के संरक्षण में विश्व की एक आर्थिक शक्ति बना , लानत है दक्षिण कोरिया के ऐसे आर्थिक विकास और उसके आर्थिक विकास के पैरोकारों पर. बात यहीं तक सीमित नहीं है दक्षिण कोरिया ने आज तक विएतनामी जनता से अपने किये की आधिकारिक रूप से माफ़ी नहीं मांगी है. यहाँ तक कि इसी 6 जून 2017 को दक्षिण कोरिया के राष्ट्रीय स्मृति दिवस पर तथाकथित उदारवादी और प्रगतिशील वर्तमान राष्ट्रपति मून जे इन ने बेशर्मी से यह तक कह डाला कि वियतनाम युद्ध में भाग लिए सैनिकों ने देश के आर्थिक विकास में बड़ा योगदान किया और भीषण गर्मी और जगलों के बीच भी अपने कर्तव्य को बखूबी निभाया. यही देशभक्ति है . दक्षिण कोरिया के कुछ हलकों में इसकी कड़ी निंदा भी हुई. वियतनाम ने दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति के इस वक्तव्य पर आपत्ति जताते हुए कहा कि इस वक्तव्य से विएतनामी जनता की भावनाओं को ठेस पहुंची है और दक्षिण कोरिया इस तरह के वक्तव्य से परहेज करे .
(문 대통령 '추념사 논란' 스푸트니크 단독 보도 후 한국 외교부 공식 입장 발표 https://kr.sputniknews.com/south_korea/201706132398717/
“한국군은 죽은 사람 시체까지 무덤에서 꺼내 불도저로 밀어버렸어요”
http://www.vop.co.kr/A00001175117.h...
Vietnam War Mercenaries from S. Korea Are Not Heroes: Hanoi
http://www.telesurtv.net/english/news/Vietnam-War-Mercenaries-from-S.-Korea-Are-Not-Heroes-Hanoi-20170615-0031.html )
वियतनाम की उदारता देखिये कि वह दक्षिण कोरिया और यहाँ तक कि अमेरिका के द्वारा किये गए कुकृत्य को भूलकर इनसे अच्छे रिश्ते बनाने मैं लगा हुआ है और दक्षिण कोरिया तो वियतनाम में सबसे बड़ा विदेशी निवेशक है और ये बेशर्म दक्षिण कोरिया वियतनाम में किये गए अपने कुकृत्य का अभी तक गौरव गान करने में लगा हुआ है.
दक्षिण कोरिया के वर्तमान राष्ट्रपति मून जे इन के इस घिनौने वक्तव्य के बाद इससे की गयी मेरी उम्मीदें धराशायी हो गईं और मैंने इसका समर्थन करना छोड़ दिया. मैंने इस इन्सान से कुछ उम्मीदें जताते हुए कोरियाई भाषा में फेसबुक पर लेख भी लिखा था और इसका हिंदी अनुवाद भी किया था कि लोग ये जान सकें की नफरतों के इस दौर में दक्षिण कोरिया ने प्रगतिशीलता का चुनाव किया है. वर्तमान दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन का हश्र भी इसके पूर्ववर्ती उदारवादी राष्ट्रपतियों जैसा ही होगा. ये इन्सान भी अमेरिकी साम्राज्यवाद से अपने पूर्ववर्ती उदारवादी राष्ट्रपतियों जैसी गलबहियाँ करने में लग गया. इससे मुझे फिर से एक बार यही सबक मिला कि दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति की औकात अभी भी अमेरिका को छोटे से मसले पर भी “ना” कहने की नहीं हुई है. यही देखिए न दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान इसी मून जे इन ने उम्मीदवार के तौर पर दक्षिण कोरिया में उन्नत मिसाइल रोधी प्रणाली (Terminal High Altitude Area Defense यानि THAAD) तैनाती का विरोध कर रहा था , अब राष्ट्रपति बनने के बाद वही इन्सान बोल रहा है कि उसका THAAD की तैनाती रद्द करने या वापस लेने का कोई विचार नहीं है , और उसका देश दक्षिण कोरिया, अमेरिका के एक सहयोगी के तौर पर आपसी विश्वास के आधार पर THAAD पर सहयोग करता रहेगा (강경화 “문 대통령, 사드 철회할 생각 없다” http://news.joins.com/article/21702... ). और तो और इस इंसान ने दक्षिण कोरिया में THAAD की अतिरिक्त ईकाई की तैनाती का निर्देश भी दे दिया है (문 대통령, 北 도발에 사드 추가배치 즉시 협의 지시 http://www.hankookilbo.com/v/89a2e6...
South Korea's Moon orders talks with U.S. to deploy more THAAD units after North Korea ICBM test http://www.reuters.com/article/us-n...), कहने को तो THAAD की तैनाती दक्षिण कोरिया को उत्तर कोरिया की तरफ से होने वाले सभावित मिसाइल हमले से सुरक्षा के लिए हुई है , लेकिन यह साबित हो चुका है THAAD उत्तर कोरिया की मिसाइल को भेद पाने में अक्षम है क्योंकि उत्तर कोरिया को दक्षिण कोरिया में मिसाइल भेजने के लिए ज्यादा ऊंचाई के इस्तेमाल करने की जरुरत नहीं है , और THAAD ऊंचाई से छोड़े गए मिसाइल को ही भेदने में ही सक्षम है. THAAD का असल निशाना चीन है इसीलिए चीन THAAD की तैनाती से दक्षिण कोरिया से बहुत नाराज़ है और इसका असर दोनों देशों के द्विपक्षीय व्यापार पर दिख रहा है , खबर है कि 2017 की दूसरी तिमाही में दक्षिण कोरिया का निर्यात 2008 की आर्थिक मंदी के 8 साल 6 महीने के बाद अपने सबसे निम्नतम स्तर पर पहुच गया , इसे THHAD तैनाती से संबंधित चीन के प्रतिशोध से जोड़कर देखा जा रहा है , इसके अलावा चीन के इस प्रतिशोध के चलते दक्षिण कोरिया के सबसे बड़े कर निर्माता हुंडई के 2017 के दूसरी तिमाही का नतीजा घटकर आधा रह गया , यही हालत दक्षिण कोरियाई सौंदर्य प्रसाधन का सामान बनाने वाले कंपनियों की भी रही(2분기 수출이 8년 반만에 '최저치'로 떨어졌다. 중국 '사드 보복' 영향이다http://www.huffingtonpost.kr/2017/07/27/story_n_17595758.html
중국 사드보복 때문에…현대차, 아모레 등 2분기 실적 반토막http://news.chosun.com/site/data/html_dir/2017/07/26/2017072602229.html )
दक्षिण कोरिया एक ऐसा ढोल है जिसे एक तरफ से अमेरिका और दूसरी तरफ से चीन पीटता रहता है और जापान की तो बात ही अलग है. इसीलिए जब दक्षिण कोरियाई संकीर्ण या अंधराष्ट्रवादी बहुत चौड़े बनते है तो उनपर केवल हंसा ही जा सकता है (काश दक्षिण कोरिया ने अपने पड़ोसी उत्तर कोरिया से स्वाभिमान और संप्रभुता के बारे में छटांक भर भी सीख ली होती ).
इसके अलावा राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान इस मून जे इन के जैसे तेवर थे , उसे देख के तो लगा था कि यह आदमी अमेरिका से बिना डरे अपनी जनता का पक्ष लेगा या कम से कम दक्षिण कोरिया का पिएरसन बनेगा. (Lester B. Pearson 1963-1968 के दौरान कनाडा के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान 2 अप्रैल 1965 को फिलाडेल्फिया के टेम्पल (Temple) विश्वविद्यालय में अपने एक व्याख्यान के दौरान अमेरिका द्वारा छेड़े गए वियतनाम युद्ध की आलोचना की थी, इससे नाराज अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने अगले दिन अमेरिकी राष्ट्रपति के फार्म हाउस कैंप डेविड में पिएरसन को मिलने के लिए तलब किया और उस दिन जॉनसन ने पिएरसन को खूब खरी खरी सुनते हुए पिएरसन का गिरेबान काफी देर तक पकड़े रहा. उस घटना के बाद से कनाडा के प्रधानमंत्रियों द्वारा अमेरिका के सामने अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखने की परंपरा की शुरुआत हुई , और अभी तक कायम है , यहाँ तक कि 2003 में इराक युद्ध में अमेरिका द्वारा कनाडा से सहयोग मांगने पर कनाडा ने इराक युद्ध को संयुक्त राष्ट्र की अनुमति नहीं मिलने का कारण बताते हुए , अमेरिका का सहयोग करने से इंकार कर दिया और कनाडा के 70% नागरिकों ने इसका समर्थन किया. आपको पता ही है कि कनाडा अमेरिका का पड़ोसी है और अमेरिका जैसा सैन्य महाशक्ति भी नहीं है और अमेरिका का उसपर सीधा दवाब रहता है , उसके बावजूद वह अमेरिका को दृढ़तापूर्वक अपनी बात कहता है . और लिंडन जॉनसन द्वारा पिएरसन का गिरेबान पकड़े जाने पर क्या कनाडा ने उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री माना? जी नहीं, उसके बाद तो कनाडाई प्रधानमंत्रियों कि हौसला अफजाई हुई . कनाडा के विदेश मंत्रालय का भवन और कनाडा के टोरंटो स्थित सबसे बड़े हवाई अड्डे का नामकरण पिएरसन के नाम पर ही हुआ है.) लेकिन दक्षिण कोरिया का वर्तमान “उदारवादी” और “प्रगतिशील” राष्ट्रपति क्या खाक पिएरसन बनेगा? अमेरिका को “ना” बोलने से पहले ही इसकी पैंट आगे से गीली और पीछे से पीली हो गई. चुनाव के दौरान इसने खूब जुमलेबाज़ी की, और जुमलेबाज़ी पर तो केवल नरेन्द्र मोदी और भाजपा का ही एकाधिकार नहीं है . दक्षिण कोरिया ही क्यों उससे कहीं अधिक धनी, विकसित और शक्तिशाली जापान की भी इस मामले में यही हालत है. वहां अमेरिका के इतर अपनी स्वतंत्र नीति पर चलने वाले प्रधानमंत्रियों को अमेरिका ने हटवा दिया. अमेरिका तो अपने विरोधी देशों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों के तख्तापलट के लिए बदनाम है और दक्षिण कोरिया तो अमेरिका की ही पैदाइश है. वर्तमान दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन ने घरेलू मोर्चे पर पिछली सरकार के कुछ घोर अलोकप्रिय फैसलों को जरुर पलटा है, लेकिन दक्षिण कोरिया में राजनीतिक कैदियों के रिहाई के मामले में ये आदमी वादे से पलट रहा है और पूर्ववर्ती उदारवादी सरकारों के द्वारा शुरू की गई दक्षिण कोरिया के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राजनीतिक कैदियों को माफ़ी देकर उनकी रिहाई की परंपरा का पालन करने से यह कहकर इंकार कर रहा है कि इस पर विचार करने के लिए उसे 3 महीने से अधिक का समय चाहिए . इतिहास गवाह है कि दक्षिण कोरिया के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति किम योंग सैम ने अपनी शपथ ग्रहण के 10 दिन बाद , राष्ट्रपति किम दे जुंग ने अपनी शपथ ग्रहण के 17 दिन के बाद और राष्ट्रपति रोह मू ह्यून ने अपनी शपथ ग्रहण के 64 दिन के बाद ही राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया([공지] 노무현대통령 64일, 김대중 대통령 17일, 양심수를 석방하는데 걸린 시간입니다 http://blog.naver.com/PostView.nhn?... ) और इन जनाब को और समय चाहिए , साफ है मून जे इन इस मामले में टालमटोल कर रहा है. जबकि ये इन्सान अपने छात्र जीवन में खुद एक राजनीतिक बंदी रहा है , उसने सैनिक तानाशाह पार्क चुंग ही और उसके बाद में राष्ट्रपति छन दू ह्वान की तानाशाही का विरोध करते हुए दो बार जेल की हवा भी खाई थी(청와대 사람들 : 그들도 양심수였다 http://www.vop.co.kr/A00001189232.h...). दक्षिण कोरिया अपने राजनीतिक बंदियों को लेकर हमेशा से दुनिया में बुरी तरह से बदनाम रहा है.
दक्षिण कोरिया में एक और किस्म का नस्लवाद है और वह है आर्थिक नस्लवाद. हालाँकि इस किस्म का नस्लवाद सड़ गल चुकी पूंजीवादी व्यवस्था वाले अन्य देशों में भी पाया जाता है लेकिन दक्षिण कोरिया में यह एकदम स्पष्ट रूप से मौजूद है. दक्षिण कोरिया में विदेशियों का मानवाधिकार उनके चमड़ी का रंग कितना गोरा है के अलावा उनके देश की प्रतिव्यक्ति आय कितनी है इस पर भी तय होता है और इस वजह से आप भारतीयों की औकात दक्षिण कोरिया में कितनी होगी इसका अंदाजा लगा लीजिये. भले ही कुछ दक्षिण कोरियाई जिसमें तथाकथित प्रगतिशील युवा वर्ग भी है आपके सामने भारत की खूब तारीफ करके आपको आसमान में उड़ा दें , लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इन्हीं में से अधिकांश लोग भीतर से आप भारतीयों की इज्जत बिलकुल भी नहीं करते हैं और पीठ पीछे आपका खूब मजाक उड़ायेंगे.
दक्षिण कोरिया के तथाकथित 1970-80 के दशक से शुरू हुए चमत्कारी आर्थिक विकास की एक शब्द में व्याख्या की जाये तो वह यह होगी “खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान”. दक्षिण कोरिया को तत्कालीन शीतयुद्धकालीन परिस्थितियों का भरपूर फायदा ही मिला, नहीं तो इस गधे (दक्षिण कोरिया) से ज्यादा काबिल फ़िलीपीन्स, इंडोनेशिया के अलावा भारत तोे था ही. वैसे मैंने दक्षिण कोरिया के इस तथाकथित आर्थिक विषय पर हालिया प्रकाशित एक किताब की समीक्षा करते हुए इसी अप्रैल में एक लेख भी लिखा था. विस्तार से जानने के लिए इस लिंक पर चटका लगाऐं.
https://www.facebook.com/brajesh.sa
ये लिंक काम नहीं करेगा. मूल लेख यह रहा
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पिछले हफ्ते दक्षिण कोरिया में वहां के आर्थिक चमत्कार की पीछे की हकीकत को बयां करती हुई एक किताब आयी है. यह किताब मूल रूप से जापान के शिजुओका विश्वविद्यालय (Shizuoka University,静岡大学) के प्रोफेसर पार्क कुन हो (Park Keun Ho, 박근호, 朴根好) ( दायें) द्वारा 2015 में जापानी भाषा में लिखी किताब 韓国経済発展論 高度成長の見えざる手 का कोरियाई अनुवाद है. इस किताब का कोरियाई शीर्षक 박정희 경제 신화 해부 - 정책 없는 고도성장 है और शीर्षक का हिंदी अनुवाद मोटे तौर पर “पार्क चुंग ही के आर्थिक विकास के मिथक का गहन विश्लेषण- एक नीतिविहीन उच्च दर का विकास” होगा. इस पोस्ट को पढ़ रहे जिन लोगों को जापानी या कोरियाई भाषा अच्छी से आती है वे इस किताब को पढ़ ही लें और जिन्हें नहीं आती उनके लिए मैं इस किताब की कुछ खास बिन्दुओं को रख रहा हूँ. क्योकि मुझे यह बात साझा करनी बहुत जरुरी लगी.
दक्षिण कोरिया के चमत्कारी आर्थिक विकास की बात हम खूब सुनते रहते हैं और इस देश को दूसरे विकासशील देशो के आर्थिक विकास के मॉडल के रूप में पेश किया जाता है. यह कहा जाता है की दक्षिण कोरिया ने पार्क चुंग ही नामक इंसान के नेतृत्व और उसकी आर्थिक विकास की नीति के चलते आर्थिक विकास की बुलदियों को छुआ. यह इंसान एक क्रूर सैनिक तानाशाह था. इस इंसान की राजनीतिक तौर पर विरोधियो द्वारा खूब आलोचना की जाती है लेकिन इसके विरोधी भी मानते हैं कि जो भी हो इसके नेतृत्व में हुए दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास को नकारा नहीं जा सकता. यह इंसान जाहिर है दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास का पर्याय माना जाता है. और कई लोगों के भेजे में भी यह बात बहुत गहराई से घर कर गयी है.
दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास पर इस इंसान के योगदान पर खुद दक्षिण कोरिया में ही कई सवाल उठे हैं और कई शोध भी हुए हैं. पर वहां के उच्च आर्थिक विकास की नीति कैसी रही उसके लक्ष्य और परिणाम कैसे हासिल हुए इस पर अब तक कोई खास शोध नहीं हुआ था लेकिन प्रोफेसर पार्क कुन हो की यह किताब पहली बार इन सभी चीजों की गहन पड़ताल करती है. उन्होंने 1960 के दशक के दौरान के अमेरिका -दक्षिण कोरिया के कई गुप्त दस्तावेजों के बाद में सार्वजनिक होने पर उनका गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास में पार्क चुंग ही सरकार की आर्थिक नीतियों का कोई खास योगदान नहीं था. अमेरिका की तत्कालीन साम्यवाद अप्रसार नीति और वियतनाम युद्ध ने दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास में महती भूमिका अदा की. प्रोफेसर पार्क इसकी तुलना किसी देश के ओलिंपिक में उसके प्रदर्शन और जीते गए मेडलों से करते हैं. किताब में उन्होंने दक्षिण कोरिया का उदाहरण दिया है , मैं भारत का उदाहरण देकर यह बात समझाता हूँ. मान लीजिये भारत सरकार ने ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के लिए हाकी,कुश्ती, मुक्केबाजी, टेनिस इत्यादि खेलों के लिए नीति बनायीं , खिलाडियों के प्रशिक्षण पर पैसा पानी की तरह बहाया. लेकिन वास्तव में ओलिंपिक खेलों में भारत को नौकायन, एथलेटिक्स, साइकिलिंग, भारोत्तोलन जैसे खेल जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था उसमें स्वर्ण पदक मिले और लक्ष्य से ज्यादा मिले . भारत ने 5 स्वर्ण पदक जितने का लक्ष्य रखा था लेकिन 6 स्वर्ण पदक मिले लेकिन भारत के परपंरागत रूप से मजबूत रहे खेलों में एक भी पदक नहीं मिला. क्या आशा के विपरीत यह उपलब्धि भारत सरकार की खेल नीति के बदौलत मिली? इस स्थिति में क्या सरकार की खेल नीति पर सवाल उठना लाजिमी नहीं होगा ?
दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास के मामले में यही हुआ था. सरकार की आर्थिक विकास की योजना और उसके लक्ष्यों और परिणामों में बहुत बड़ा अंतर दिख रहा था और कई बार तो परिणाम लक्ष्य के बिलकुल विपरीत रहा और उसका नाता आर्थिक नीति से तो बिलकुल भी नहीं था.उदाहरण के लिए उस समय दक्षिण कोरिया का मुख्य निर्यात रहा पोशाक उत्पाद अपना निर्यात लक्ष्य हासिल नहीं कर सका लेकिन इसके विपरीत निर्यात में कोई खास योगदान न करने वाला अंडरवियर उत्पाद के निर्यात में पोशाक उत्पाद की तुलना में दोगुनी वृद्धि हुई. यह अंडरवियर के अच्छी गुणवत्ता और उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के कारण नहीं हुआ यह अमेरिका की Buy Korea की नीति के तहत हुआ. इस नीति के तहत अमेरिका ने दक्षिण कोरिया में उत्पादित सारी चीजें जिनमें उसकी गैर जरुरी चीजें भी शामिल थीं उन्हें खरीदा. यह बात ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका ने दक्षिण कोरिया पर अमेरिका की वस्तुओं को खरीदने का दबाब नहीं डाला और केवल दक्षिण कोरिया में उत्पादित वस्तुओं को प्राथमिकता दी. वियतनाम युद्ध में दक्षिण कोरिया द्वारा कि गयी भारी सैनिक मदद से अमेरिका दक्षिण कोरिया पर मेहरबान हो गया और उसने दक्षिण कोरिया को साम्यवाद विरोधी गढ़ के रूप में विकसित करने के लिए दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था का जीर्णोद्धार करने में अपनी ताकत झोंक दी. 1960 के शुरुआती दशक तक दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था बिलकुल मरनास्सन थी. उस समय अमेरिका के विशेष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को भेजे गए एक मेमो में कहा था कि अमेरिका ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से दक्षिण कोरिया में 6 अरब डॉलर (3.8 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता और 2.8 अरब डॉलर की सैन्य सहायता ) से ज्यादा झोंका लेकिन दक्षिण कोरिया अमेरिका के लिए अभी भी वही अस्थिर सौतेली औलाद है. लेकिन 1960 के दशक में अमेरिका को पार्क चुंग ही के रूप में एक घनघोर फासीवादी इंसान मिल गया जो अमेरिका के साम्यवाद विरोधी अभियान में बहुत बड़ा सहयोगी बना.
इस किताब में इस बात का भी जिक्र है की 1960 के शुरुआती दशक तक भारत को (गैर साम्यवादी देश के रूप में) विकासशील देशों का मॉडल समझा जाता था लेकिन वियतनाम युद्ध के बाद अमेरिका की सारी पूंजी और तकनीक का निर्यात दक्षिण कोरिया को होने लगा. यही नहीं उस समय एशिया में फ़िलीपीन्स , इंडोनेशिया जैसे निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश दक्षिण कोरिया से अच्छी हालत में थे लेकिन अमेरिका ने केवल दक्षिण कोरिया को भारी प्राथमिकता दी और दक्षिण कोरियाई आर्थिक विकास का मॉडल अस्तित्व में आया जिसमे वहां कि सरकारी नीति का कोई भी योगदान नहीं था सिर्फ अमेरिका की एकतरफा भरपूर मदद से यह मुमकिन हुआ.
दक्षिण कोरिया का इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग भी वहां की सरकारी नीति के चलते विकसित नहीं हुआ. दूसरे विकासशील देशों की तुलना में दक्षिण कोरिया में इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग का विकास एक असामान्य घटना थी. वहां के इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग के विकास में अमेरिका के बाटेल अनुसन्धान केंद्र (Battelle Memorial Institute) ने ही सबकुछ किया. बाटेल अनुसन्धान केंद्र ने ही दक्षिण कोरिया में कोरिया विज्ञानं और तकनीकी अनुसन्धान केंद्र (Korea Institute of Science and Technology; KIST) की स्थापना में निर्णायक भूमिका निभाई, दक्षिण कोरिया में अनुसन्धान, विकास और नयी खोजों के लिए एक तंत्र का निर्माण किया. इसमें पार्क चुंग ही कि सरकार का कोई योगदान नहीं था. यही नहीं बाटेल अनुसन्धान केंद्र ने दक्षिण कोरिया कि आर्थिक नीति के लिए एक थिंक टैंक की भी स्थापना की.
इसमें कोई शक नहीं कि दक्षिण कोरिया के आर्थिक चमत्कार के पीछे अमेरिका के अदृश्य हाथ का कमाल था. दक्षिण कोरिया को तत्कालीन शीतयुद्धकालीन परिस्तिथियों का भरपूर फायदा मिला. दक्षिण कोरिया के आर्थिक चमत्कार के इस इतिहास को देखकर यही निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण कोरिया विकासशील देशों के लिए आर्थिक विकास का मॉडल तो कतई नहीं हो सकता है.
साम्राज्यवाद के टुकड़ो पर पले दक्षिण कोरिया जैसे परजीवी देश से आर्थिक विकास की क्या सीख मिल सकती है?
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और दक्षिण कोरिया का आर्थिक विकास मॉडल तो कोई पुण्य या नेकी पर आधारित तो है नहीं , यह भी पूंजीवादी मॉडल की तरह ही भयंकर शोषण, संसाधनों की लूट और गरीबों को उजाड़ने पर ही आधारित है. अगर आप अपने देश में आदिवासियों को उनकी जंगल या जमीन से विस्थापित करके, बिना पर्याप्त व्यवस्था के गरीबों को उजाड़कर विकास करने के विरोधी हैं तो आप किसी भी तरीके से दक्षिण कोरियाई विकास मॉडल का समर्थन नहीं कर सकते. दक्षिण कोरिया में ही मेरी मुलाकात एक भारतीय बुद्धिजीवी से हुई थी जो भारत में विस्थापित लोगों के आधिकारों से जुड़े हुए थे , लेकिन वही साहब दक्षिण कोरिया के विकास मॉडल का हरदम स्तुति गान यह कहकर गाते रहते थे कि दक्षिण कोरिया को देखो बिना लोगों को उजाड़े हुए उनकी सहमति से कैसे इसने तीव्र आर्थिक विकास कर लिया. मैंने उन साहब को एक ही उदाहरण दिया तो वो गों गों करने लग गए, वह उदाहरण था चोनग्येछोन(Cheonggyecheon, 청계천) का , जो भी मित्र दक्षिण कोरिया में रह रहे हैं या दक्षिण कोरिया से जुड़े हुए हैं , उन्होंने इसका नाम जरुर सुना होगा और यह दुनिया के सबसे बड़े शहरी नवीकरण (Urban Renewal) का बहुत बड़ा उदाहरण है , जब कोरियाई युद्ध के बाद सीओल शहर के बीचोबीच बहने वाली एक नदी पहले तो नाले के रूप में परिवर्तित हुई और बाद में उसको ढककर उसके ऊपर सड़क और उपरी पुल बना दिया गया, 2003 से उस नदी को पुनर्जीवित करने और वहां सौन्दर्यीकरण करने के नाम पर दक्षिण कोरिया के सबसे बड़े कबाड़ी या गुदड़ी बाज़ार और उससे जुड़े लोगों को निर्ममतापूर्वक उजाड़ा गया. वह कबाड़ी बाज़ार दक्षिण कोरिया के शहरी गरीबों के लिए सस्ती कीमत पर टिकाऊ चीजों को खरीदने का बहुत्र बड़ा सहारा था, और छोटे मोटे दुकानदारों के लिए जीवन जीने का सहारा भी था . मैंने भी वहां से कुछ पुरानी किताबें खरीदी थीं. मैंने उस बाज़ार के दुकानदारों को अपनी आखों के सामने उजड़ते हुए देखा है. मेरे विश्वविद्यालय से कमरे आने के रास्ते में यह बाज़ार पड़ता था. वह नवम्बर 2003 की देर रात का वक़्त था मैं अपने कमरे लौट रहा था तभी मैंने पुलिस का बहुत बड़ा जमावड़ा देखा जिसकी दूसरी तरफ विरोध करते दुकानदार थे, कई बुलडोज़र भी थे . पुलिस और दुकानदारों के बीच भयंकर झड़प हुई और एक प्रदर्शनकारी मारा भी गया , पुलिस को बुलडोज़र चलवाने मैं सफलता मिल ही गई. उस दिन के बाद से वहां रोज प्रदर्शन होते रहे.
कई दिनों के कड़े विरोध प्रदर्शन के बाद सीओल के तत्कालीन मेयर ली म्युंग बाक ने , (जो बाद में 2008 से 2013 तक दक्षिण कोरिया का राष्ट्रपति भी रहा) , उजड़े हुए दुकानदारों को पास में जगह देने की घोषणा की , और अंत में इसका पालन भी नहीं हुआ , आज भी उजड़े हुए दुकानदार संघर्ष कर रहे हैं और कुछ को मजबूरन दूसरा धंधा अपनाना पड़ा. उस बाज़ार के 2000 दुकानदार और उनके परिवारों का जीवन हमेशा के लिए तहस नहस हो गया(가난의 시대 पृष्ठ संख्या 220-227 ) . इसके अलावा दक्षिण कोरिया में तो विकास के नाम पर गरीबों और मजबूरों को उजाड़ने का लम्बा इतिहास रहा है और अभी भी उजाड़ने का काम होता है, मैंने तो बस अपने आँखों से देखी दक्षिण कोरियाई विकास मॉडल का एक छोटा सा ही उदाहरण दिया है. इसके बाद मैं जब भी उस जगह से गुजरता था मुझे उस रात की घटना अनायास ही याद आ जाती थी. और मैं दक्षिण कोरिया के वियतनाम युद्ध में वहां के लोगों को मारने काटने के एवज में मिले खून से सने पैसे से आर्थिक विकास करने की बात ऊपर कर ही चुका हूँ.
मुझे पता नहीं कि मेरे आस पास के कोरियाई भाषा पढ़ने वाले जानकारों ने दक्षिण कोरिया के ब्रदर्स होम (Brother's Home ,형제복지원) के बारे में पढ़ा या सुना होगा की नहीं. ब्रदर्स होम 1980 के दशक में दक्षिण कोरिया के पुसान में स्थित एक यातना शिविर (Concentration Camp ) था , जहाँ पुरे दक्षिण कोरिया से गरीब और बेघर बच्चों और बड़ों को रखा जाता था. वहाँ उनके निर्मम शोषण के साथ साथ अकल्पनीय भयावह यातनाएं भी दी जाती थीं . बच्चों के हर दिन यौन शोषण से लेकर लोगों को पीट पीट कर उनकी जान तक ले जाती थी और वहां के बंदियों से बनवाये गयी चीजों जैसे कपडे का निर्यात यूरोप और अमेरिका की किया जाता था. इसे नरक में भी नरक की संज्ञा दी गयी थी. दक्षिण कोरिया ने 1988 में अपनी राजधानी सीओल में ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक का आयोजन किया था और दुनिया को दक्षिण कोरिया में गरीबी के अप्रिय दृश्य न दिखें इसीलिए अपनी झूठी संपन्नता के विद्रूप प्रदर्शन के लिए देश भर से गरीब और बेघर लोगों को पकड़ पकड़ कर इस ब्रदर्स होम में लाया गया. और यहाँ बंदियों पर इतने अत्याचार होते थे कि रूह बुरी तरह से काँप जाए. जाहिर है यह सब दक्षिण कोरिया की सरकार ने ही किया था. अब ये यातना शिविर तो बंद कर दिया गया है लेकिन इसके जिम्मेदार लोगों को अभी तक कोई सजा नहीं हुई है और पीड़ितों से सरकार ने अब तक ना तो कोई माफ़ी मांगी है और ना उन्हें कोई हर्जाना दिया है. ('Hell within Hell': Children raped daily for years, forced to pick maggots out of open wounds and watch inmates being tortured and stamped to death at 'evil' South Korean labour camp http://www.dailymail.co.uk/news/art... ) . दक्षिण कोरिया में रहने वाले अगर ये लेख पढ़ रहे हैं तो उनसे ये कहना चाहता हूँ कि अगर आपको वहां सड़कों पर कोई अर्धविछिप्त सा कोई अधेड़ उम्र का कोई पुरुष या महिला मिले तो उन्हें हिकारत की नज़र से नहीं देखिएगा , हो सकता है कि वो इसी ब्रदर्स होम के जीवित बचे और मुक्त कराये गए बंदी हों. उन बेचारों को केवल गरीब और बेघर होने के चलते दक्षिण कोरियाई शासन द्वारा निर्मम सजा दी गयी थी. यही नहीं दक्षिण कोरिया ने 2002 में जब जापान के साथ फुटबॉल विश्व कप की संयुक्त रूप से मेजबानी की थी तब भी दुनिया को दक्षिण कोरिया की तथाकथित संपन्नता दिखलाने के लिए सीओल समेत विश्व कप के मैच वाले शहरों में रेहड़ी, खोमचे वालों जैसे शहरी गरीबों को उजाड़ा गया था. 2005 में इसी पुसान शहर में APEC (Asia Pacific Economic Corporation) सम्मलेन का आयोजन हुआ था , जिसमें अमेरिका, रूस समेत प्रमुख देशों ने राष्ट्राध्यक्षों ने शिरकत की थी , तब भी शहर के गरीबों को उजाड़ दिया गया था. मैं भी अपने संगठन के साथियों के साथ APEC विरोधी प्रदर्शन में शामिल होने पुसान गया था (यहाँ बता दूँ कि मैं दक्षिण कोरिया में अपनी पढ़ाई के दौरान वहां के कुछ वामपंथी जनसंगठनों का सक्रिय कार्यकर्ता भी था). और उस विरोध प्रदर्शन में उजाड़े हुए गरीब भी भारी संख्या में शामिल हुए थे, और मैं रात को एक ऐसे ही उजाड़े गए गरीब की कुटिया पर रुका था.
ऐसा नहीं है कि मैंने दक्षिण कोरिया में अच्छी चीजें देखने की कोशिश नहीं की. मैं अपने कोरियाई दोस्तों को हमेशा कहता रहता था कि चाहे जितनी भी कमी रहे तुम्हारे दक्षिण कोरिया में , लेकिन यहाँ भारत की तरह जातिवाद व्याप्त नहीं है यही अच्छी बात है. एक दिन एक छात्र संगठन से जुड़ी एक मित्र ने ऐसी बात कह डाली कि मानो मेरे गाल पर कसके एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा हो. बात दक्षिण कोरिया के शिक्षा व्यवस्था पर हो रही थी , दक्षिण कोरिया में गिनती के कुछ शीर्ष विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए छात्रों के बीच भीषण गलाकाटू प्रतियोगिता होती है, या यूं कहें कि उनकी जिंदगी इसी बात पर तय हो जाती है कि उसे देश के किस शीर्ष विश्वविद्यालय में दाखिला मिला, और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए उनके माता पिता का पैसे वाला होना बहुत जरुरी हो जाता है. उस दोस्त ने कहा कि तुम्हारे भारत में तो जाति व्यवस्था जन्म से तय हो जाती है , और हमारे दक्षिण कोरिया में विश्वविद्यालय और माता पिता के धन से जाति तय होती है. वह मित्र भारत की अच्छी जानकार भी थी तो उसने इतना तक कह दिया कि तुम्हारे यहाँ तो पिछड़ी जातियों के आगे बढ़ने के लिए आरक्षण भी है, अमेरिका में भी अफरमेटिव एक्शन है , लेकिन दक्षिण कोरिया में तो कुछ भी नहीं है. विदेशियों को दक्षिण कोरिया की इस तरह की खतरनाक जाति व्यवस्था आसानी से नहीं दिखाई देगी. उस दोस्त ने कोई गलत नहीं कहा था , कोरियाई जानने वाले मित्रों को अगर 한국의 학벌 또 하나의 카스트인가 नामक किताब मिलती है तो उसे जरुर पढ़ लीजिएगा. उस दोस्त ने यह बात आज से 14 साल पहले कही थी , क्या दक्षिण कोरिया में इस स्थिति में सुधार हुआ? जबाब है एकदम नहीं , हालात् और बिगड़ रहे हैं. इस पर ज्यादा बात न करते हुए दक्षिण कोरिया के इन्टरनेट आधारित एक स्वतंत्र खोजी मीडिया चैनल न्यूज़थाफा (Newstapa, 뉴스타파)की एक खबर का एक उदाहरण देना चाहूँगा. न्यूज़थाफा ने फोर्ब्स पत्रिका के आंकड़ों के आधार पर 13 देशों के 30 आयु वर्ग के धनी लोगों के बीच अपने दम पर सफल हुए लोगों के प्रतिशत का अध्ययन किया, और इस अध्ययन के अनुसार अपने बलबूते पर सफल हुए या अमीर बने लोगों का प्रतिशत चीन में 97%, इंग्लैंड में 80%, जापान में 73%, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में 70%, अमेरिका में 63%, फिलीपींस और ताइवान में 53%, इंडोनेशिया में 47%, थाईलैंड और फ्रांस में 40% और यहाँ तक कि जाति व्यवस्था वाले भारत में 33% था. दक्षिण कोरिया में कितने प्रतिशत लोग अपने बलबूते पर सफल हुए या अमीर बने? जबाब है 23% जो उल्लिखित सभी देशों से भी नीचे है. मतलब साफ़ है की भारत जैसे देश में भी जहाँ सवर्ण जातियों के पास सारे संसाधन होने के बावजूद पिछड़े वर्ग के लोगों की सफलता की जितनी गारंटी रहती है, दक्षिण कोरिया में उतनी भी नहीं है . दक्षिण कोरियाई समाज में पैसे से गरीब लोगों को अंत्यंत हेय दृष्टि से देखा जाता है और वहां अपने बलबूते पर अमीर बनना नामुमकिन तो है ही . दक्षिण कोरिया में हमारे यहाँ की तरह नेताओं के बेटे बेटियों की भी बहुत सेटिंग रहती है. और हाँ दक्षिण कोरिया में कोई इक्का दुक्का गरीब अगर अपने बूते सफल भी हो जाता है तो उसका बीता हुआ कल वहां के समाज में उसका पीछा नहीं छोड़ता , जैसे हमारे यहाँ दलित के सफल हो जाने पर भी समाज में उसकी जाति के नाम पर उसे अपमानित किया जाता है. न्यूज़थाफा की सम्बंधित खबर का कोरियाई लिंक नीचे. (자수성가는 없다…신분세습 갈수록 심해져http://newstapa.org/30163 )
विदेशियों के प्रति दक्षिण कोरियाईयों के नस्लवादी सोच को तो छोड़ दीजिये. दक्षिण कोरिया में दक्षिण पूर्व में स्थित क्योंग्सांग प्रान्त के लोग , दक्षिण पश्चिम में स्थित छोल्ला प्रान्त के लोगों को बहुत हिकारत की निगाह से देखते हैं , जो भारत के प्रांतीयतावाद से किसी मायनों में कम नहीं है. बहुत सारी वजहें है लेकिन इस लेख में एक वजह बताना चाहूँगा , क्योंग्सांग प्रान्त के लोग छोल्ला प्रान्त के लोगों को इसीलिए नापसंद करते हैं कि छोल्ला प्रान्त के लोग चुनाव में प्रगतिशील राजनीति का समर्थन करते हैं , जबकि क्योंग्सांग प्रान्त के लोग धुर दक्षिणपंथ का चुनाव करते हैं. इस साल राष्ट्रपति चुनाव में भी यही प्रवृति दिखाई दी , जब छोल्ला प्रान्त के लोगों ने अपना एकमुश्त वोट उदारवादी उम्मीदवार को दिया और क्योंग्सांग प्रान्त खासकर इसके उत्तरी भाग के लोगों ने हमेशा की तरह धुर दक्षिणपंथी उम्मीदवार का समर्थन किया. यहाँ यह बात भी बतानी जरुरी है कि 1980 में दक्षिण कोरिया में लोकतंत्र की स्थापना के लिए बहुत बड़ा आन्दोलन हुआ और इसका प्रमुख केंद्र छोल्ला प्रान्त का सबसे बड़ा शहर क्वान्ग्जू था. क्योंग्सांग प्रान्त के लोगों की छोल्ला प्रान्त के लोगों के प्रति हिकारत को खुद मैंने व्यक्तिगत रूप से महसूस किया है, बात दिसम्बर 2004 की है जब मैं अपनी एक खास कोरियाई परिचित की छोटी बहन की शादी में शामिल होने क्योंग्सांग प्रान्त के सबसे बड़े और दक्षिण कोरिया के दुसरे बड़े शहर पुसान जा रहा था और मैंने कोई खास कपड़े नहीं पहन रखे थे , जैसा मैं अक्सर करता हूँ. जब मैं पुसान पहुंचा तो उस परिचित की माँ ने मेरे कपड़ों को देखकर यह कह दिया कि मैं एकदम छोल्ला प्रान्त वाला लग रहा हूँ. शायद उसकी माँ को पता नहीं होगा कि मुझे कोरियाई भाषा भी आती है या हो सकता है कि अनायास ही उसके मुंह से ऐसा वाक्य निकल गया हो , मेरी उस परिचित ने मुझे कोने में ले जाकर अपनी माँ द्वारा कहे गए शब्दों के लिए माफ़ी मांगी. बताइए मुझ विदेशी को भी लपेट लिया दक्षिण कोरिया के इस प्रांतीयतावाद ने. बस साधारण शब्दों में समझ लीजिये कि दिल्ली में जो मतलब “बिहारी” का होता है , एकदम वही मतलब क्योंग्सांग प्रान्त में छोल्ला प्रान्त के लोगों के लिए होता है , कहीं-कहीं तो उससे भी ज्यादा. जिन लोगों की यह समझ है की एक संस्कृति और एक नस्ल होने के वजह से दक्षिण कोरिया में भारत की तरह प्रांतीयतावाद नहीं होगा वो अपनी समझ को दुरुस्त कर लें.
जाति व्यवस्था के बाद आते हैं दक्षिण कोरिया में धार्मिक सम्प्रदायवाद की और. मुझे बहुत अच्छा लगता था कि दक्षिण कोरिया की राजनीति और समाज में भारत की तरह धर्म का नंगा नाच नहीं होता, इसकी एक वजह यह हो सकती है कि कोरिया का बंटवारा विचारधारा के आधार पर हुआ था और इसीलिए वहाँ धार्मिक सम्प्रदायवाद का महत्व गौण रहा. लेकिन सच्चाई यह भी है कि बंटवारे के बाद दक्षिण कोरिया में अमेरिकी प्रभाव के बढ़ने से ईसाईयत का जमकर प्रसार हुआ और इस वजह से ईसाईयों (कैथोलिकों को छोड़कर) का वहाँ की राजनीति और समाज में बहुत दबदबा रहा है , अब विस्तार से बताने लगूंगा तो इसके लिए मुझे एक अलग लेख लिखना पड़ जायेगा. बस इतना जान लीजिये कि वहाँ भी ईसाईयों और बौद्धों के बीच तनाव हो जाता है. एक बार तो एक ईसाईयों का एक दल किसी बौद्ध मंदिर में जाकर प्रार्थना करने लगा कि ईश्वर इस बौद्ध मंदिर को तबाह कर दो ताकि आपकी ईसाईयत की स्थापना हो सके. इसके अलावा भी कई ईसाई समुदाय दक्षिण कोरिया में सारे बौद्ध मंदिरों के विनाश की प्रार्थना करते रहते हैं और बर्बरता दिखलाते रहते हैं. ज्यादा जानकारी के लिए इस लिंक पर चटका लगायें
(Christian vandalism and violence against the Buddhist religion in South Korea https://talktruthful.com/2016/08/22/christian-vandalism-in-south-korea-against-the-buddhist-religion/ ) इसके अलावा 2008 की एक और संबंधित पुरानी खबर है (Religious peace under threat in South Korea http://www.nytimes.com/2008/10/14/w... ) .
एक बार तो सीओल के मेयर ली म्युंग बाक जो बाद में दक्षिण कोरिया का 17वाँ राष्ट्रपति भी हुआ उसने मई 2004 में व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि सीओल के मेयर के तौर पर एक चर्च द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए कह डाला कि सीओल ईश्वर द्वारा शासित एक पवित्र नगर है इसीलिए मैं सीओल को ईश्वर को समर्पित करता हूँ (이명박 시장 "수도 서울을 하나님께 봉헌" http://www.ohmynews.com/NWS_Web/Vie...). उसके इस सांप्रदायिक बयान की दक्षिण कोरिया में कई हलकों में खूब आलोचना हुई कि कैसे विभिन्न धर्माम्बिल्म्बियों के शहर सीओल को उसके मेयर द्वारा किसी खास धर्म का शहर कहा जा सकता है. ये तो केवल एक उदाहरण है कि दक्षिण कोरिया में धर्म (ईसाई) की राजनीति में कितनी घुसपैठ है. मैं दक्षिण कोरिया के कोरियाई मुस्लिमों से भी मिला हूँ , बाकी कोरियाई उनसे भयंकर भेदभाव करते हैं , इससे यह भी पता चलता है कि दक्षिण कोरिया के समाज में दूसरे धर्मों के लिए सहिष्णुता का अभाव है, कभी मुस्लिमों के बारे में दक्षिण कोरियाईयों के पवित्र विचार जान लीजियेगा , मोदी भक्तों से जरा सा भी कम नहीं है. यह भी गंभीरता से सोचने वाली बात है कि जिस दक्षिण कोरिया की 50% से ज्यादा जनसंख्या का कोई आधिकारिक धर्म न हो वहाँ भी धर्म की राजनीति और शासन में इतनी घुसपैठ है. अभी तो दक्षिण कोरिया में धर्म का मामला लगभग शांत ही है , लेकिन यह चिंगारी कभी भी भड़क सकती है.
अब आइये जानते हैं कि दक्षिण कोरियाई समाज भारत और भारतीयों के बारे में कैसी सोच रखता है. सचमुच में अच्छी सोच रखने वाले भी लोग हैं , लेकिन अभी भी अधिकांश दक्षिण कोरियाई भारतीयों को आलसी , कामचोर और गन्दा ही समझते हैं , भारतीय ही क्यों अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के लोगों के प्रति इनकी यही सोच है जबकि दक्षिण कोरिया में सारे कठिन शारीरिक परिश्रम और खतरनाक काम दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से आये हुए प्रवासी मजदूर निहायत ही कठिन परिस्तिथियों में करते हैं और दक्षिण कोरियाईयों को लगता है कि पूरी दुनिया में वही सबसे ज्यादा काबिल हैं और मेहनत नाम की चीज पर सिर्फ उनकी ही बपौती है.
दक्षिण कोरिया का मीडिया ही नहीं चाहता की दक्षिण कोरियाई लोगों के भारत के प्रति सकारात्मक सोच बने. मैं एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा, मैंने बिना किसी स्कालरशिप के दक्षिण कोरिया के एक सरकारी विश्वविद्यालय से एमए किया है, महीने का खर्च मैं पार्ट टाइम करके चलाता था , अक्टूबर 2005 में दक्षिण कोरिया के एक बड़े टीवी चैनल SBS(Seoul Broadcasting System) से मुझे कॉल आया कि भारत के ऊपर एक डाक्यूमेंट्री उसके द्वारा बनाई जा रही है तो उसमें जो भी हिंदी या अंग्रेजी में इंटरव्यू हैं उसकी कोरियाई में सबटाईटलिंग(Subtitling) करनी है और पटकथा लेखन के लिए भारत संबंधित कई चीज़ों जैसे खेल, विज्ञान, कला, संस्कृति, राजनीति, अर्थव्यवस्था पर अनुसन्धान में मदद भी करनी है. मैं चैनल के ऑफिस गया और डाक्यूमेंट्री से जुडी टीम के साथ काम करना शुरू कर दिया. उस डाक्यूमेंट्री के निर्माता निर्देशक ने मुझसे कहा कि वो भारत पर अलग किस्म की डाक्यूमेंट्री बनाना चाहता है , जिसमें भारत की विज्ञान और टेक्नोलॉजी का भी उल्लेख होगा क्योंकि दक्षिण कोरियाईयों को इसके बारे में जरा सा भी पता नहीं है. उसी ने आगे कहा कि वह दक्षिण कोरियाईयों को यह बतलाना चाहता है कि 1970 के दशक में जब दक्षिण कोरिया ने अपना पहला रेफ्रीजरेटर बनाया था तब भारत ने अपना पहला सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजा था और बाद में दक्षिण कोरिया ने अपना पहला सैटेलाइट 1999 में भारत के श्रीहरिकोटा से ही अंतरिक्ष में भेजा था. वह अपने साथ इसरो की ढेर सारी आधिकारिक विडियो भी लाया था , जिसमें इसरो के कई अधिकारियों के इंटरव्यू और इसरो की उपलब्धियों का जिक्र था , इसके अलावा भारत की बायो और फार्मास्यूटिकल कंपनियों की उपलब्धियों का जिक्र था , कुल मिलाकर भारत को दक्षिण कोरिया में पहली बार सबसे सकारात्मक रूप से दिखाने की कोशिश की जा रही थी. इन वीडियोज के अलावा भारत में कोरियाई कंपनियों की स्थिति, और भारत के सपेरों, जनजातियों मतलब वही विदेशियों के मन में व्याप्त भारत की छवि से संबंधित विडियो भी थे, लेकिन निर्माता निर्देशक का यह कहना था कि उसे ये सब सपेरा टाइप का कुछ नहीं दिखाना है. खैर एक महीने बाद काम पूरा हुआ और जब एडिट होकर डाक्यूमेंट्री प्रसारित हुई तो मैं अपने एक भारतीय दोस्त के साथ उसे टीवी पर देखा और मेरी ऐसी हालत हो गई कि काटो तो खून नहीं. डाक्यूमेंट्री में वही सपेरा दिखा रहे थे , इसरो का कोई जिक्र नहीं था और उस डाक्यूमेंट्री में भारत में दक्षिण कोरियाई कंपनियों की सफलता की कहानी ही दिखा रहे थे मानो जैसे दक्षिण कोरियाई कंपनियों के आने से पहले भारत में कोई साफ़ सुथरी फैक्ट्री नहीं थी , दक्षिण कोरिया ने भारतीयों को सुधार दिया और तो और चेन्नई स्थित अपनी हुंडई कारखाने को चेन्नई का गौरव इस तरह बता रहे थे कि मानो उसके पहले चेन्नई में कुछ था ही नहीं, कुल मिलकर सिर्फ यही दिखलाया गया कि भारत दक्षिण कोरियाई कंपनियों के लिए एक बहुत बड़ा बाज़ार है. ठीक है अपनी कंपनियों की सफलता के बारे में बताएं लेकिन निर्माता निर्देशक ने इतना बड़ा झूठ क्यों बोला. एक महीने तक साथ काम करते हुए उस डाक्यूमेंट्री की पटकथा लेखक से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी ( यहाँ यह बताना जरुरी है की आपके लिए K-Drama की पटकथा लिखने वाले लोग बहुत बुरी स्थिति में काम करते हैं , उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर लिया जाता है और कम मजदूरी पर ज्यादा काम करवाया जाता है [tvN ‘혼술남녀’ PD 비극으로 본 방송 노동환경](상)고효율 ‘방송 한류’ 뒤엔…과잉 노동·하청·해고 ‘헬조선 축소판’ http://news.khan.co.kr/kh_news/khan_art_view.html?code=960801&artid=201704301619001 ), मैंने पटकथा लेखक को फ़ोन कर कहा कि ऐसा क्यों हुआ , तब उसने मुझे मिलने बुलाया और मुझे बताया कि निर्माता निर्देशक बहुत बुरा आदमी है और प्रायोजकों का भी कहना था कि डाक्यूमेंट्री में सिर्फ यह दिखलाना है कि भारत दक्षिण कोरिया के लिए केवल एक बाज़ार है और भारत को दक्षिण कोरियाई कंपनियों की जरुरत है और भारत इनके बिना चल नहीं सकता. वो पटकथा लेखक निर्माता निर्देशक से लगता है बहुत गुस्सा थी और भी कई बातें बता गई , उन बातों का इस लेख से कोई संबंध नहीं है.उस डाक्यूमेंट्री की एक कॉपी मैंने जेएनयू के कोरियाई विभाग को भी दी थी . अगर जेएनयू के कोरियाई विभाग के मित्र यह लेख पढ़ रहे हैं और ये डाक्यूमेंट्री देखना चाहते हैं तो विभाग से संपर्क करें. वैसे आप ये डाक्यूमेंट्री देखेंगे तो आपको मेरी ऊपर कही हुई बातें पता नहीं चलेंगी . क्योंकि इसके सम्पादित और प्रसारित होने के पहले के सारे फुटेज तो आपने नहीं देखे हैं और न उस निर्माता निर्देशक की कहीं बातों को सुना है.
अमेरिका और अन्य देशों को अलावा दक्षिण कोरिया कि कम्पनियाँ भी विशाल भारतीय बाज़ार की ओर कसकर लार टपकाए हुए है. आबादी और क्रयशक्ति के हिसाब से देखें तो चीन भारत से कहीं बड़ा बाज़ार है , लेकिन चीन घरेलू स्तर पर अपनी कंपनियों को बहुत बढ़ावा देता है और उसका घरेलू प्रोडक्शन लाइन भी भारत से कहीं ज्यादा बड़ा और विस्तृत है , वहीं भारत में सुई से लेकर कार तक सबमें विदेशी कंपनियों की घुसपैठ है. जहाँ तक चीन और दक्षिण कोरिया की बात है , दोनों देशों के बीच राजनीतिक मुद्दों पर गाहे बगाहे मतभेद होता रहता है और अब तकनीकी स्तर पर चीन और दक्षिण कोरिया की वस्तुओं में कोई अंतर नहीं रह गया है और चीन कुछ क्षेत्रो जैसे मानवरहित कार और ड्रोन में दक्षिण कोरिया से आगे निकल गया है . इतना ही नहीं दक्षिण कोरियाई इलेक्ट्रॉनिक्स , ऑटोमोबाइल उद्योगों को चीन से कड़ी टक्कर मिल रही है और चीन और दक्षिण कोरिया के बीच तकनीकी अंतर बस 1.7-1.8 वर्षों का ही रह गया है . इसके अलावा चीन अब दक्षिण कोरिया को विनिर्माण तकनीक के क्षेत्र में अपना प्रतिद्वंद्वी भी नहीं मानता है अब चीन कि मंशा 2025 तक तकनीक के मामले में जर्मनी और जापान को पछाड़ने की है और 2045 तक अमेरिका को. दक्षिण कोरिया के उद्योगों के लिए यह एकदम प्राणघातक है , यह मैं नहीं कह रहा दक्षिण कोरिया का सबसे बड़ा अखबार कह रहा है (中 "한국은 이미 따라잡았다… 10년안에 일본·독일 잡겠다http://news.chosun.com/site/data/html_dir/2016/04/19/2016041900145.html?outlink=facebook )
और चीन जिस तरह से तकनीक में आगे बढ़ रहा है उससे लगता है कि वह अपना यह लक्ष्य पहले ही पा लेगा. तकनीक तो तकनीक , कीमत के मामले में चीनी वस्तुओं को आप जानते ही हैं. अब मेड इन चाइना वो पहले वाला नहीं रह गया है. भारत में आप मोबाइल फ़ोन का ही उदाहरण ले लीजिये , कैसे चीनी कंपनियों ने तकनीक और कीमत के बल पर भारतीय मोबाइल बाज़ार में सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं, और दक्षिण कोरियाई सैमसंग कि बाजार हिस्सेदारी घटा दी है. सैमसंग दुनिया की नामचीन कंपनियों की तुलना में अपने प्रचार प्रसार और आक्रामक मार्केटिंग पर सबसे ज्यादा अंधाधुंध पैसा खर्च कर जैसे तैसे एक ब्रांड तो बन गया है (Samsung's $14bn is 'Biggest Marketing Budget in History http://www.ibtimes.co.uk/samsung-14bn-marketing-budget-biggest-history-525979
Samsung spent over $10 billion on marketing last year https://www.neowin.net/news/samsung-spent-over-10-billion-on-marketing-last-year ) लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी. लीजिए दुनिया के अभी तीसरे और जल्द ही दूसरे नंबर के स्मार्टफोन के बाजार होने जा रहे भारत में सैमसंग की नैया डावाडोल होने लग गई है, सैमसंग ने किसी तरह इस साल के प्रथमार्ध (First Half) तक भारत के स्मार्टफोन के बाज़ार में नंबर 1 पर तो रहा लेकिन नंबर 2 वाली कंपनी से जहाँ पहले वह 14.% के अंतर से आगे था , वह अंतर अब घटकर 8.6% ही रह गया है. बताने की जरुरत नहीं की इसमें चीनी कंपनियों का ही योगंदान है , कहाँ तो 2015 तक सारी चीनी कंपनियों (ज्योमी, ओप्पो, वीवो आदि) की भारतीय स्मार्टफोन बाज़ार में हिस्सेदारी 14% थी , जो 2016 में बढ़कर 46% और इस साल अभी तक 51% हो गई है और आगे इसके और भी बढ़ने की प्रबल संभावना है. विश्व के सबसे बड़े स्मार्टफोन बाजार चीन में तो सैमसंग का खेल लगभग ख़तम है , कहाँ तो एक समय चीन के बाज़ार में नंबर 1 पर काबिज सैमसंग अब तेजी से लुढ़ककर 6वें नंबर पर पहुँच चुका है (삼성 스마트폰 인도서 '불안한 1위 http://www.fnnews.com/news/20170731... )
इसके अलावा चीन समेत दुनिया के कई देशो में दक्षिण कोरिया को नापसंद किया जाता है और उसकी छवि बहुत बुरी है. लेकिन सिर्फ चीन के अलावा वो देश इतने बड़े बाज़ार नहीं हैं, और भारत में तो अभी तक लोग दक्षिण कोरिया कहाँ स्थित है , ये भी नहीं जानते हैं तो उसकी छवि के बारे में कैसे जानेंगे. मेरे अनुमान से (हो सकता है कि मैं इसमें पूरी तरह से सही नहीं हो सकता हूँ) दक्षिण कोरिया को यह भी भय सता रहा होगा कि उस भारतीय छात्र के साथ हुई नस्लवादी घटना की खबर कहीं भारत में भी जोर शोर से न फैल जाये और भारतीयों के मन में दक्षिण कोरिया विरोधी भावना घर न कर जाये , इसीलिए वहां के मीडिया और ने इस घटना को इतना कवरेज दिया , इसकी आलोचना की और माफी मांगकर खानापूर्ति करने कि कोशिश की गई, और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की अगर यह नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, फिलिपींस, मध्य एशिया या किसी अफ्रीकी देश के छात्र के साथ हुआ होता तो दक्षिण कोरियाई इतना तक भी नहीं करते. दक्षिण कोरिया की छवि कुछ देशो में कैसी है इसकी भी चर्चा मैं आगे करूँगा, लेकिन इतना तो समझ लीजिये की यह भारत जैसे बड़े बाज़ार में अपनी छवि ख़राब होने से रोकने और इससे भारत में अपने बाज़ार को बचाए रखने के लिए दक्षिण कोरिया की मीडिया और लोगों द्वारा बेमन से ही सही की गयी कवायद है और पूरी तरह से एक कैलक्युलेटिव मूव है क्योंकि अब तो इन्हें भारतीय बाज़ार में चीन से जो कड़ी टक्कर मिल रही है , 10 साल पहले ऐसा नहीं था . अगर दक्षिण कोरिया ने भारत का बाज़ार भी खो दिया तो पहले से ही हिचकोले खा रही उसकी अर्थव्यवस्था का और भी परेशानी में पड़ना तय है. उदाहरण के लिए अगर भारतीयों ने दक्षिण कोरिया के सैमसंग के मोबाइल फ़ोन, LG के टीवी और हुंडई की कार का बड़े पैमाने पर बहिष्कार करना शुरू कर दिया तो दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगेगा . चीन में गाहे बगाहे दक्षिण कोरिया विरोधी भावना फैलती है और वहां तुरंत दक्षिण कोरियाई कम्पनियों का बहिष्कार शुरू हो जाता है, तब दक्षिण कोरिया की प्रतिक्रिया देखिये तुरंत डैमेज कंट्रोल में जुट जाता हैं. या फिर दक्षिण कोरियाई मीडिया के लिए यह बार वाली घटना एक सनसनीखेज मसाला होगी , क्यों नहीं आख़िरकार उसे भी तो TRP की जरुरत है. और जाहिर सी बात है मीडिया बार का पक्ष तो नहीं ले सकता था. जिस समय दक्षिण कोरियाई मीडिया उस बार वाली घटना के कवरेज मैं जोर शोर से लगा था , उससे कुछ दिन पहले दक्षिण कोरिया के एक ग्रामीण क्षेत्र में एक सूअरबाड़े की सफाई में लगे नेपाल के चार गरीब प्रवासी मजदूरों की दम घुटने से मौत कि खबर आई(개돼지만도 못한 죽음 http://h21.hani.co.kr/arti/cover/co... ) और यह घटना इक्का दुक्का मुख्यधारा की मीडिया को छोड़ सुर्खियाँ नहीं बटोर पाई . दक्षिण कोरिया में नेपाल, बांग्लादेश समेत दक्षिण पूर्व एशिया के देशो से आये प्रवासी मजदूरों के साथ किस तरह का नस्लीय भेदभाव करता है और उन्हें किस तरह खतरे के बीच काम करना पड़ता है , ये बताने के लिए कई लेख या किताबें लिखनी पड़ जाएंगी. दक्षिण कोरिया का मीडिया भी देश देखकर ही कवरेज करता है.
विदेशों में दक्षिण कोरियाई लोगों की छवि कोई ज्यादा अच्छी नहीं है , मैं इस बात से भी इंकार नहीं कर रहा कि उनके समाज में सचमुच दिल से अच्छे लोग नहीं हैं. विदेशो में दक्षिण कोरियाई मादक पदार्थ की तस्करी, वेश्यावृति के प्रबंध यानि दल्लागिरी, अश्लील सामग्रियों के निर्माण और उसका प्रचार, विभिन्न प्रकार की ठगी और विदेशी कामगारों से अमानवीय बर्ताव आदि के लिए बदनाम हैं. ये मैं नहीं कह रहा दक्षिण कोरिया का विदेश मंत्रालय कह रहा है
(해외 추한 한국인 추방운동 캠페인 안내http://ind-mumbai.mofa.go.kr/webmodule/htsboard/template/read/korboardread.jsp?typeID=15&boardid=1666&seqno=573077&c=TITLE&t=&pagenum=38&tableName=TYPE_LEGATION&pc=&dc=&wc=&lu=&vu=&iu=&du= ) और बाद में खुद दक्षिण कोरिया के इसी विदेश मंत्रालय द्वारा कोई कारवाई नहीं कि जाती है.
इस लेख की शुरुआत मैंने कुछ दक्षिण कोरियाईयों के नस्लवादी टिपण्णी से की है जिसमें भारतीयों को बलात्कारी कहा गया है. ये एक कडवी सच्चाई है , भारत में बढ़ रहे महिलाओं के प्रति अपराध घोर निंदनीय हैं और ऐसे अपराधों को रोकने का युद्धस्तर पर प्रयास होना चाहिए. लेकिन दक्षिण कोरियाई क्या दूध के धुले हुए हैं? क्या दक्षिण कोरिया में महिलाओं के प्रति घिनौने अपराध नहीं होते हैं?
Violence Against Women http://www.korea4expats.com/article-violence-against-women-korea.html
DOES SOUTH KOREA HAVE A VIOLENT CRIME PROBLEM AGAINST WOMEN? http://www.rokdrop.net/2016/05/south-korea-violent-crime-women-problem/
दक्षिण कोरिया एक घनघोर लैंगिक असमानता वाला देश है. विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum, WEF) की सालाना एक रिपोर्ट आती है जिसमें दुनिया के देशों की लैंगिक असमानता पर चर्चा की जाती है और देशों की रैंकिंग की जाती है , तो उसी WEF की 2016 की Global Gender Gap Report पर नज़र डाल लेते हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण कोरिया 144 देशो में 116 वें स्थान पर है ,दक्षिण कोरिया से नीचे सऊदी अरब , यमन ओमन जैसे मध्य पूर्व के देश ही हैं . इस रिपोर्ट में प्रत्येक देशों में महिलाओं की आर्थिक मामलों में सहभागिता और अवसर, शिक्षा की प्राप्ति, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता (Survival) ,राजनीतिक सशक्तिकरण से संबंधित आंकड़ो की विवेचना कर रैंकिंग दी जाती है और इस हिसाब से दक्षिण कोरिया महिलाओं की आर्थिक मामलों में सहभागिता और अवसर में 144 देशों में 123वें, शिक्षा की प्राप्ति में 102वें, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में 76वें और राजनीतिक सशक्तिकरण में 92वें स्थान पर है, दक्षिण कोरिया खुश हो सकता है कि जापान भी उससे इस मामले में ज्यादा ऊपर नहीं है और 111वें स्थान पर है. आइये भारत की भी इस मामले में स्थिति जान लेते हैं और WEF की इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत दक्षिण कोरिया से 29 पायदान आगे है और 144 देशों में 87वें स्थान पर है, आर्थिक मामलों में सहभागिता और अवसर के मामले में भारत 144 देशों में 136वें, शिक्षा की प्राप्ति में 113वें, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में 142 वें और राजनीतिक सशक्तिकरण में 9वें स्थान पर है. जाहिर है कि महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में भारत के शीर्ष 10 देशों में शामिल होने से भारत की रैंकिंग दक्षिण कोरिया से बहुत आगे हो गई है , आर्थिक मामलों में सहभागिता और अवसर, और शिक्षा की प्राप्ति के मामले में तो भारत और दक्षिण कोरिया की रैंकिंग में ज्यादा अंतर नहीं है. केवल महिलाओं की स्वास्थ्य और उत्तरजीविता के मामले में भारत दक्षिण कोरिया से मार खा गया है. और हाँ 10 साल पहले यानि 2006 की तुलना में दक्षिण कोरिया में इन 4 क्षेत्रों में केवल स्वास्थ्य और उत्तरजीविता को छोड़कर बाकी 3 क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति में गिरावट ही आई है और भारत में केवल राजनीतिक सशक्तिकरण को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति में गिरावट का इस रिपोर्ट में जिक्र है. इस रिपोर्ट का भी लिंक दे देता हूँ, 391 पेज की रिपोर्ट है और इसके पेज नंबर 196 पर भारत और पेज नंबर 218 पर दक्षिण कोरिया का जिक्र है (http://www3.weforum.org/docs/GGGR16/WEF_Global_Gender_Gap_Report_2016.pdf ). दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन ने अपने मंत्रिमंडल में 30% स्थान महिलाओं को दिए हैं तो हो सकता है कि दक्षिण कोरिया 2017 वाली Global Gender Gap Report में कुछ पायदान ऊपर आ जाए. बहुत सारे भारतीय सोचते होंगे या असल में सोचते ही हैं कि दक्षिण कोरिया में महिलाओं की हालत बहुत ज्यादा अच्छी होगी , लेकिन साहब हकीकत बहुत डरावनी है और मैं कह ही रहा हूँ कि दक्षिण कोरिया एक “शो पीस” है , धोखा न खा जाइए. भारतीय और दक्षिण कोरियाई महिलाओं के मामले में एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं और दोनों में सेर और सवा सेर वाली होड़ लगी रहती है.
यही नहीं अनुमान के आधार पर भी दक्षिण कोरिया लैंगिक समानता के मामले में विश्व के 10 सबसे बुरे देशों में है और इन देशों में सिर्फ भारत और दक्षिण कोरिया को छोड़कर सारे मुस्लिम बाहुल्य देश हैं. मगर शर्म है कि हम भारतीयों और इन दक्षिण कोरियाईयों को नहीं आती
The 10 Worst Countries for Gender Equality, Ranked by Perception https://www.usnews.com/news/best-countries/articles/2016-03-10/the-10-worst-countries-for-gender-equality-ranked-by-perception
एक बार मैं अचम्भे में पड़ गया था , जब भारत में बहुत रूचि रखने वाली एक दक्षिण कोरियाई महिला मित्र ने मुझसे इस हद तक कह डाला कि उसे महिलाओं के लिए भारत दक्षिण कोरिया से ज्यादा सुरक्षित लगता है , यकीन मानिये मुझे जिंदगी मैं ऐसे झटके बहुत कम लगे हैं , मैं उसे बोला कि उसका दिमाग तो दुरुस्त है न और कोई ड्रग्स तो नहीं ले लिया है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था उसके इस जबाब ने मुझे निरुत्तर कर दिया कि कम से कम भारत में तो यह कहते हैं कि ये फलाने कि बीवी है, बेटी है या बहू है और उस आधार पर कम से कम महिला को कुछ इज्जत तो मिल जाती है, भारत में तो ज्यादातर मामलों में सिर्फ छूकर या दबा कर भाग जाते हैं, लेकिन दक्षिण कोरिया में महिलाओं को अपने पुरुष बॉस या प्रोफेसरों द्वारा इससे ज्यादा छेड़छाड़ का सामना नियमित रूप से करना पड़ता है और उसने मुझसे कहा कि मैं एक सर्वे कर लूँ कि दक्षिण कोरिया में कितनी कामकाजी महिलाएं इस तरह कि छेड़छाड़ से मुक्त है और ऐसी महिलाओं को खोजना भूसे के ढेर में सुई खोजने के बराबर होगा. खैर मैंने तो कभी भी भारत को महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं माना और भारत घूमने आयीं अपनी परिचित कोरियाई महिलाओं की सुरक्षा के लिए चिंतित रहा करता था और अब तो कहने के लिए शब्द नहीं है , लेकिन उस मित्र के इस सवाल का जबाब उस समय नहीं दे पाया था. और दक्षिण कोरिया के बारे में मेरी एक अच्छी सोच कि यहाँ महिलाओं की स्थिति कहीं बेहतर है को जोर का झटका लगा था. यह विडम्बना ही है कि जिस दक्षिण कोरिया की मिसाल बेटी बचाने के लिए दी जाती है (बेटी बचाना है तो दक्षिण कोरिया से सीखिए http://www.bbc.com/hindi/international-38609139 ) वहां घनघोर लैंगिक असमानता है . दक्षिण कोरियाई लोग बेटी तो बचा लेते हैं , लेकिन वहां बेटियों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है और कुछ मामलों में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि दक्षिण कोरिया महिलाओं के लिए पूर्वी एशिया का सऊदी अरब ही है. भले ही दक्षिण कोरिया में बेटियों की भ्रूण हत्या न होती हो और उन्हें परदे में न रखा जाता हो लेकिन दक्षिण कोरिया जैसे तथाकथित “सभ्य” देश में स्त्री को उसके देह से इतर एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में नहीं देखा जाता है. दक्षिण कोरिया में लैंगिक असमानता के ऊपर ढेरों पुस्तकें लिखीं जा सकती हैं.
बहरहाल दक्षिण कोरियाई पुरुषों की घोर महिला विरोधी सोच को पूरी तरह से इस लेख में शामिल नहीं किया जा सकता. दक्षिण कोरियाई पुरुषों को छोड़ भी दें तो वहां के बच्चों की महिलाओं के प्रति क्या सोच है सिर्फ दो खबरों(कोरियाई भाषा में ) से जान लेते हैं. एक खबर यह आई कि दक्षिण कोरिया के एक मध्य विद्यालय में एक शिक्षिका की कक्षा के दौरान दस छात्रों ने एक साथ हस्तमैथुन किया. स्कूल की तरफ से घटना की लीपापोती की कोशिश की गई और उसी शिक्षिका से कहलवाया गया की उन छात्रों ने कक्षा के दौरान हस्तमैथुन नहीं किया और यह सब कक्षा के समाप्त होने पर छिप कर किया और जब शिक्षिका नजदीक आई तो छात्रों ने अपनी यह हरकत बंद कर दी (बदनामी से बचने के लिए धमकी देकर गवाह से झूठ बुलवाने का काम भारत से “ईमानदार” और “अनुकरणीय”दक्षिण कोरिया में भी बहुत होता है) और खानापूर्ति के नाम पर उन छात्रों को विशेष सेक्स संबंधित शिक्षा देने का आदेश दिया. (남중생 10여 명이 여성 교사 수업 시간에 한 행동http://www.huffingtonpost.kr/2017/06/27/story_n_17302184.html ). दूसरी एक खबर के अनुसार दक्षिण कोरिया के विद्यालयों में छात्रों द्वारा गुप्त कैमरे से शिक्षिका के स्कर्ट के भीतर फोटो लेकर उसे एक दूसरे के साथ साझा करने , शिक्षिका के साथ छेड़ छाड़ या यौन उत्पीडन की घटनाएं खूब होती हैं. इसीलिए शिक्षिकाओं से यह कहा गया कि अगर पुरुष छात्रों के विद्यालय में पढ़ाने जाना है तो किसी हद तक मानसिक रूप से तैयार हो के जाना होगा अन्यथा बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाएगा. (학생이 교사에 "몇번 했어?"…여교사 인권 '사각지대' http://news.joins.com/article/18417114 ) इन दो ख़बरों से यह समझ लीजिये कि ऐसे बच्चों से बड़े होकर महिलाओं के प्रति सम्मानजनक सोच रखने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती , दक्षिण कोरिया में ऐसी चीजों के लिए हलकी सजा का प्रावधान है या इसे गंभीर अपराध माना ही नहीं जाता और जाहिर है ऐसे लोगों का मनोबल और भी बढ़ जाता है . लीजिये एक मामले में तो एक जज साहब (दक्षिण कोरिया के सांसद के बेटे भी थे) ही महिला के शरीर के निचले हिस्से का गुप्त कैमरे से छायांकन करते हुए पकड़े गए (국회의원 아들인 현직 판사, 지하철서 몰카 찍다 체포 http://news.khan.co.kr/kh_news/khan...) . यहाँ आपको बता दूँ कि “सभ्य” दक्षिण कोरिया में अत्याधुनिक गुप्त कैमरे से महिलाओं के शरीर के हिस्सों कि तस्वीर लेकर उसे इन्टरनेट पर डालने कि समस्या ने अत्यंत गंभीर रूप ले लिया है दूसरे शब्दों में राष्ट्रव्यापी समस्या का रूप ले लिया है . दक्षिण कोरिया में सार्वजनिक महिला शौचालयों का उपयोग करने में कई महिलाएं भयभीत रहती हैं, गुप्त कैमरे से पीड़ित महिलाओं की मनोदशा कोरियाई में इस लेख में वर्णित है (누구나 찍고 찍히는 2mm 몰카의 공포 http://h21.hani.co.kr/arti/culture/... ) और एक घटना में हाफ पैंट पहने एक आदमी ने लिफ्ट में अपने सामने खड़ीं एक महिला को देखकर अपनी हाफ पैंट उतार दी. महिला ने पुलिस को खबर की और पुलिस ने पहुंचकर जाँच शुरू कि तो पता चला कि पैंट उतारने वाले जनाब खुद पुलिसवाले ही थे और छुट्टी पर थे और 2015 में भी ऐसी ही हरकत के लिए इन जनाब को सजा भी मिली थी फिर भी जनाब दुबारा ऐसी हरकत करने से बाज नहीं आए (현직 경찰, 대낮에 공공장소서 바지내려 입건http://www.hani.co.kr/arti/society/society_general/806539.html ). खैर “सभ्य” और “अनुशासित” दक्षिण कोरिया में महिलाओं के प्रति ऐसी घटनाओं का सिलसिला अंतहीन है.
वैसे दक्षिण कोरिया में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध को देखकर , अभी हाल में वहां के सांसदों ने संबंधित कानून में वहाँ बलात्कार का प्रयास करने और आदतन महिलाओं को बुरी निगाह से ताक झांक(Voyeurism) करने वालों तक के लिए भी उन्हें रासायनिक रूप से बधिया(Chemical Castration ) करने जैसे प्रावधान डालकर संशोधित कानून पास कर दिया है ., देखते हैं ऐसा कानून दक्षिण कोरिया में महिलाओं के प्रति अपराध रोकने में कितना कारगर साबित होता है (Attempted Rape and Voyeurism to be Punished with Chemical Castration Under New Reforms http://koreabizwire.com/attempted-rape-and-voyeurism-to-be-punished-with-chemical-castration-under-new-reforms/88970 ). ये अलग बात है कि दक्षिण कोरिया में 2004 के वेश्यावृति निरोधी कड़े कानून की खूब धज्जियाँ उड़ चुकी/ रही हैं. अब यही देखना है कि दक्षिण कोरिया में इस कानून का मजाक कब बनता है. दक्षिण कोरिया के समर्थक इस मुगालते में न रहे कि वहां कानून का कड़ाई से पालन होता है. सिर्फ एक कानून जिसका जिक्र मैं बार बार इस लेख में कर रहा हूँ वही राष्ट्रीय सुरक्षा कानून सिर्फ उसी में कड़ाई से पेश आते हैं. नहीं तो हत्या और बलात्कार जैसे संगीन मामलों में दक्षिण कोरिया में उतनी गंभीर सजा नहीं होती , और अगर शराब के नशे में ऐसे संगीन अपराध किये गए हैं तब तो सजा की मियाद और भी कम कर दी जाती है.
कई दक्षिण कोरियाइयों के इस तर्क को मान भी लें कि सारे भारतीय पुरुष बलात्कारी होते या औरतों के प्रति अपराधी होते हैं तो अपने देश के अलावा विदेशों में दक्षिण कोरियाई पुरुष कौन सा झंडे गाड़ रहे हैं ? अरे ऐसे दक्षिण कोरियाई पुरुष तो स्थानीय संस्कृति तक को बिगाड़ कर रख देते हैं. आइये कुछ देशों में इनकी करतूतों पर नज़र डाल लेते हैं.
दक्षिणी प्रशांत महासागर में किरिबाती नाम का एक छोटा और सुन्दर द्वीप देश है. आर्थिक रूप से गरीब किरिबाती ने अपने समुद्री क्षेत्र को विदेशी मत्स्य नौकाओं (Fishing Boats) को पट्टे पर देना शुरू कर दिया. उसी के तहत 1980 के दशक के मध्य में दक्षिण कोरियाई मत्स्य नौकाओं का भी आना शुरू हुआ. दक्षिण कोरियाईयों के किरिबाती आने के बाद जो होने लगा वो इस देश के इतिहास में आज तक नहीं हुआ था. किरिबाती में दक्षिण कोरियाईयों के आने के पहले न तो वहाँ कोई वेश्यालय थे और न कोई वेश्या, लेकिन उनके आने के बाद से वहाँ जिस्मफरोशी का दौर शुरू हो गया. किशोर वय की लड़कियों तक को इसमें शामिल कर लिया गया. किरिबाती में दक्षिण कोरियाईयों द्वारा शुरू की गयी जिस्मफरोशी की समस्या ने इतना भयंकर रूप ले लिया कि 2003 में किरिबाती की सरकार ने दक्षिण कोरियाई नौकाओं के किरिबाती घुसने पर पाबन्दी तक लगा दी. किरिबाती में एक शब्द प्रचलित है कोरे कोरेया(KoreKorea) यह वहाँ उन किशोरियों या जवान औरतों को कहा जाता है जो अपना जिस्म विदेशी नाविकों को बेचती हैं. चूँकि जिस्मफरोशी दक्षिण कोरियाइयों द्वारा शुरू की गयी थी इसीलिए कोरिया का नाम जुड़ा है. दूसरे शब्दों में समझें तो किरिबाती में कोरिया(दक्षिण) शब्द ही एक गाली बन गया और वहाँ यौनिक रूप से एकदम पतित महिला को कोरे कोरेया कहा जाता है. इसके अलावा किरिबाती में दक्षिण कोरियायियों और स्थानीय युवतियों से पैदा हुए बच्चे भी हैं और उनकी माँओं को जब पता चलता है की तट पर कोई दक्षिण कोरियाई जहाज आया है तो वो अपने बच्चों के बाप की तलाश में उस जहाज तक पहुँच जाती हैं. इसके अलावा किरिबाती में ताईवानी और जापानी नौकाओं और नाविकों को भी कोरियाई समझ लिया जाता है क्योंकि उनके लिए सारे पूर्वी एशियाई चेहरे कोरियाई हैं और उनके लिए कोरियाई का मतलब ही जिस्म खरीदने वाला इंसान होता है. तो दक्षिण कोरियायियों ने इस तरह किरिबाती में गंध मचाई और अभी भी मचा रहे होंगे. आपकी जानकारी के लिए नीचे विकिपीडिया का एक संबंधित लिंक दे रहा हूँ (KoreKorea https://en.wikipedia.org/wiki/KoreKorea)
मैंने जो भी बातें ऊपर लिखी हैं वो कोरियाई भाषा में लिखी स्रोतों के आधार पर लिखी हैं और नीचे भी उसी के आधार पर लिखने जा रहा हूँ . अगर किसी कोरियाई भाषा जानने वाले को लगे की मैं दक्षिण कोरिया और दक्षिण कोरियाइयों को बदनाम करने के लिए ऐसे ही यह सब लिख रहा हूँ तो मुझे बता दें. मेरे पास 106 पृष्ठों की कुछ साल पुरानी सामग्री है , वही सामग्री पटक दूंगा.
किरिबाती के बाद रुख करते हैं मंगोलिया का यह जानने के लिए वहां दक्षिण कोरियाईयों ने क्या गंध मचाया. सनद रहे कि उस बार में जहाँ उस भारतीय छात्र को उसकी भारतीय राष्ट्रीयता के चलते घुसने नहीं दिया गया था उसमें भारत समेत कुछ अन्य देशों के लोगों को घुसने पर पाबंदी थी उन देशों में मंगोलिया भी था. अब देखते हैं की इन्हीं दक्षिण कोरियाईयों ने मंगोलिया में क्या किया. 1990 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहल होने के बाद दक्षिण कोरियाईयों का मंगोलिया आना शुरू हुआ और इसके साथ दक्षिण कोरियाई ढंग के कराओके बार मंगोलिया की राजधानी उलानबातर में फैलने शुरू हो गए और ऐसे कराओके बारों की संख्या तक़रीबन 200 तक पहुँच गई और इन बारों में मंगोलियाई युवतियों के साथ शराब पीकर मंगोलिया के परंपरागत घर गेर (Ger) में उसी युवती के साथ सेक्स करने की सुविधा शुरू हो गई. मंगोलियाई लोगों के लिए ऐसी हरक़त उनकी संस्कृति और उनके आत्मसम्मान को कुचलने जैसी थी . इसके अलावा एक और घटना में एक दक्षिण कोरियाई मोबाइल इन्टरनेट सर्विस कंपनी के 6 लोग वहां के एक प्रशिक्षण महाविद्यालय के व्याख्यान कक्ष में मंगोलियाई युवती के नग्न दृश्य गैरकानूनी रूप से फिल्माने के आरोप में वहां की पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. पढने लिखने की जगह पर नग्न दृश्य फिल्माने की ऐसी ओछी हरकत दक्षिण कोरियाई ही कर सकते हैं और करे भी क्यों नहीं जब इनके बच्चे ही अपने देश में शिक्षिका के सामने हस्तमैथुन कर सकते हैं , यौन उत्पीड़न कर सकते हैं तो बड़े विदेशों में इतना भी नहीं कर सकते क्या? इसके अलावा उलानबातर विश्वविद्यालय के कोरियाई विभाग के एक प्रोफेसर के अनुसार जब कोरियाई विभाग की छात्राओं को कोरियाई कंपनी के लिए दुभाषिये के तौर पर भेजा जाता है तो दक्षिण कोरियाईयों द्वारा उनपर शराब पीने का दबाब डाला जाता है और सेक्स करने तक की मांग की जाती है. इसके अलावा कोरियाई भाषा पढ़ रही एक मंगोलियाई युवती को खुद दक्षिण कोरिया के राजदूत ने अपने प्रेमजाल में फंसा कर उसे गर्भवती कर दिया और जब उसे बच्चा हुआ तो उसे अपनाने और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया. राजदूत का यह विवाहेत्तर संबंध (extramarital affair) था. उस युवती द्वारा शिकायत किये जाने पर और मंगोलिया के साथ रिश्ते ख़राब होने के डर से दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्रालय ने उस राजदूत का इस्तीफा ले लिया. (South Korean Ambassador in Ulaanbaatar involved with Mongolian teen girl romanticaly, fathered a child and then refused to pay child support http://mongolianviews.blogspot.in/2011/03/south-korean-ambassador-in-ulaanbaatar.html ) .
एक और घटना में चिली में दक्षिण कोरियाई दूतावास के सांस्कृतिक मामलों के प्रभारी एक राजनयिक को कोरियाई पढ़ाने के नाम पर एक 14 वर्षीया किशोरी के साथ यौन शोषण करने का दोषी पाया गया और उसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया. इस घटना से चिली के लोग काफी गुस्सा हुए (S. Korean diplomat dismissed for sexually abusing teenager in Chile http://english.yonhapnews.co.kr/news/2016/12/27/0200000000AEN20161227009300315.html). खबर यह भी है कि विदेश स्थित दक्षिण कोरियाई दूतावास के अधिकारियों की वहां वेश्यावृति कराने में संलिप्तता पाई गयी है. और वहां सरकारी खर्चे पर कई दक्षिण कोरियाई अधिकारी केवल सेक्स करने के लिये ही जाते हैं और तो और विदेश स्थित दक्षिण कोरियाई कम्पनियां भी क्यूँ पीछे रहे वो अपने अधिकारियों को उन देशो में सिर्फ सेक्स करने के लिए भी बुलाती हैं. बेशर्म दक्षिण कोरियाई सरकार हर बार कारवाई तो करती हैं , लेकिन क्या ये सब रुक या कम हो रहा है? अगर ऐसे दक्षिण कोरियाईयों पर विदेशी अधिकारियों द्वारा कारवाई भी की जाती है तो ये कई मामलों में भारी रकम अदा करके रिहा हो जाते हैं.
एक शब्द में कहूँ तो दक्षिण कोरिया के अलावा विदेशों में इन दक्षिण कोरियाईयों द्वारा चलाये जा रहे जिस्मफरोशी और इससे संबंधित मौज मस्ती के अड्डे दूसरों की कल्पना से परे हैं. एशियाई देशों के अलावा अमेरिका में भी दक्षिण कोरियाईयों द्वारा चलाये जा रहे विशाल सेक्स रैकेट पकड़े जाने की खबरें आती रहती हैं. एक उदाहरण (Large prostitution ring, Bellevue brothels shut down http://www.seattletimes.com/seattle-news/crime/online-site-where-men-rated-prostitutes-is-shut-down-charges-to-be-filed/ ) एक समय जिस दक्षिण कोरिया की 25% कमाई केवल जिस्मफरोशी और उससे जुड़े धंधों से होती थी और अभी भी उस देश की जीडीपी का 4% जिस्मफरोशी से ही आता है, उस दक्षिण कोरिया से क्या उम्मीद की जा सकती है (South Korea: A Thriving Sex Industry In A Powerful, Wealthy Super-State http://www.ibtimes.com/south-korea-...)
इसके अलावा दक्षिण कोरियाई, वियतनाम, कंबोडिया, थाईलैंड और फिलीपींस में बाल वेश्यावृत्ति के नंबर एक ग्राहक हैं और वहां इसको बढ़ावा देने के बहुत बड़े जिम्मेदार हैं (Government Report: Korea Ranked #1 for Sex with Minors in Southeast Asia http://koreabridge.net/post/government-report-korea-ranked-1-sex-minors-southeast-asia-idlewordship ) इसके अलावा दुनियाभर में बाल वेश्यावृति के खिलाफ काम कर रहा ECPAT (End Child Prostitution, Child Pornography and Trafficking of Children for Sexual Purposes) नाम का एक गैर सरकारी संस्थान (NGO) है. देखिये दक्षिण कोरिया के बारे में इसकी 2012 तक की रिपोर्ट का सारांश क्या कहता है ? http://www.ecpat.org/wp-content/uploads/2016/04/Ex_Summary_EAP_SOUTH%20KOREA_FINAL.pdf
कंबोडिया से खबर है कि वहां की सरकार ने अपने युवतियों की शादी दक्षिण कोरियाई पुरुषों से करने पर रोक लगा दी है. दक्षिण कोरियाई पुरुषों के द्वारा कम्बोडियाई युवतियों को शादी के नाम पर फंसा कर उनकी मानव तस्करी करने के कारण ऐसा प्रतिबन्ध लगाया गया है . इससे पहले 2010 में भी कम्बोडियाई युवतियों की शादी दक्षिण कोरियाई पुरुषों से करने पर एक महीने का प्रतिबंध लगाया गया था (10 things that are banned in Cambodia http://www.phnompenhpost.com/lifestyle/10-things-are-banned-cambodia
캄보디아 정부 “캄보디아 여성 한국 남성과 결혼 금지” http://news.joins.com/article/21788698 ) इस खबर में कितनी सच्चाई है इस पर अभी तो कुछ नहीं कहा जा सकता , लेकिन अपने देश के अलावा विदेशों में दक्षिण कोरियाई पुरुषों की हरकतों को देखते हुए कोई अचरज भी नहीं हो सकता. एक वक़्त था जब यही दक्षिण कोरियाई अपने देश में सेक्स पर्यटन के लिए आने वाले जापानी पुरुषों का विरोध किया करते थे , अब देखिये खुद क्या कर रहे हैं , क्या अंतर है उस वक्त के उन जापानी पुरुषों और अभी के दक्षिण कोरियाई पुरुषों के बीच? मैंने ऊपर ही प्रमाण के साथ लिखा है कि किस तरह ऐसे दक्षिण कोरियाई विदेशो में मानव तस्करी और जिस्मफरोशी के धंधे में संलिप्त हैं. नैतिकता का चहुँओर उपदेश देने वाले दक्षिण कोरियाइयों के पास शर्म है कि आस पास फटकती तक नहीं . वैसे खबर यह भी है कि कंबोडिया की सरकार ने केवल 50 वर्ष से ऊपर के दक्षिण कोरियाई और मासिक आय 2500 डालर से कम वाले पुरुषों की शादी कम्बोडियाई युवतियों से करने पर रोक लगाई है (캄보디아 정부의 한국 남성과 '결혼 금지령', 사실은? http://www.ohmynews.com/NWS_Web/View/at_pg.aspx?CNTN_CD=A0002346441 ). कुछ भी कहा जाए लेकिन दक्षिण कोरियाईयों द्वारा दक्षिण पूर्व एशिया की युवतियों को शादी या प्रेम के जाल में फंसाकर उनकी तस्करी करने की सच्चाई नहीं बदलने वाली है. मैं यहाँ भी साफ करना चाहता हूँ कि सारे दक्षिण कोरियाई पुरुष ऐसे नहीं हैं, मेरे एक-दो दक्षिण कोरियाई परिचित हैं और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया के देश की महिला से शादी की है और वे अपनी पत्नी को बड़ी इज्जत देते हैं. ये सब खबर सुनकर उनके दिलों पर क्या बीतती होगी.
इसके अलावा दक्षिण पूर्व एशियाई देशो के बहुत सारे लोगों का कहना है कि K-Drama में दिखाए जानेवाली दक्षिण कोरियाईयों की अच्छी छवि के दर्शन वास्तविक रूप में दुर्लभ है . इसके अलावा यह भी कहा गया कि वो अब कभी ठग और भगोड़े दक्षिण कोरियाईयों के साथ किसी तरह का कोई मतलब नहीं रखना चाहते. भारत में दक्षिण कोरियाई अपने ठगे जाने की बात बहुत चिल्ला चिल्ला के बताते रहते हैं और खुद चीन, मंगोलिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में एक नंबर के धूर्त और ठग हैं. भारत में भी ठगी करते ही होंगे.
अगर दक्षिण कोरिया के लोग हमें बलात्कारी कहते हैं तो हम क्या नहीं कह सकते कि “सावधान हो जाओ इलाके के लोगों ! तुम्हारे इलाके में दक्षिण कोरियाई लोग रहने आ गए हैं अब बहुत जल्द तुम्हारे इलाके में जिस्मफरोशी और मानव तस्करी का धंधा होने वाला है और ये दक्षिण कोरियाई दरिन्दे तुम्हारी किशोरी और युवा बहनों और बेटियों को नहीं छोड़ेंगे, सबको धंधे में खींच लेंगे या उनकी तस्करी करेंगे जैसे अपने यहाँ करते हैं”. भारत में दक्षिण कोरियाई अभी उतना नहीं घुसे हैं , एक बार इनकी तादाद बढ़ जाये तो देखिएगा कैसे भारत में मानव तस्करी और जिस्मफरोशी का धंधा और कसकर जोर पकड़ता है(सभी दक्षिण कोरियाईयों को नहीं कह रहा हूँ). हमने ऊपर किरिबाती , मंगोलिया और कंबोडिया का इक्का दुक्का उदाहरण ही देखा . इसके अलावा और भी कुछ देशों में दक्षिण कोरियाईयों की ऐसी करतूतों के बहुत सारे उदाहरण थे जिसे इस लेख में समेटा नहीं जा सका.
दक्षिण कोरिया का समाज कुछ लोगों के लिए अनुकरणीय हो सकता है परंतु मेरे जैसे लोगों के लिए तो बिल्कुल नहीं हो सकता. 1997 यानि आज से बीस साल पहले मैंने जेएनयू के दक्षिण कोरिया द्वारा सहयोग प्राप्त कोरियाई सेण्टर में दाखिला लेकर कोरियाई भाषा सीखनी शुरू की थी और इसके साथ दक्षिण कोरिया को गहराई से समझने की कोशिश भी शुरू हुई और अभी भी जारी है. पिछले 20 वर्षों के अनुभव से कह सकता हूँ कि दक्षिण कोरियाई समाज निहायत ही बीमार समाज है और हाँ मैं अपने भारत के समाज को कोई क्लीन चिट भी नहीं दे रहा हूँ. मेरे अनुभव से भारत और दक्षिण कोरियाई समाज एक दूसरे से बेहतर नहीं बल्कि दोनों ही समान रूप से बीमार सोच वाले समाज हैं और बड़े पैमाने पर सुधार की जरुरत है इसीलिए एक दूसरे के लिए अनुकरणीय होने की बात बेमानी हो जाती है. इतना जरुर कह सकता हूँ कि दक्षिण कोरियाई समाज में तर्क वितर्क और आलोचना का कोई स्थान नहीं है , बस वरिष्ठों ने जो बात कह दी उसको पत्थर की लकीर मान के ही चलिए, इतना कट्टर तो रूढ़िवादी भारतीय समाज भी नहीं है कम से कम वरिष्ठों से तर्क वितर्क और आलोचना की गुंजाइश तो है. अफसोस तो तब होता है कि जब दक्षिण कोरिया अध्ययन से लम्बे समय से जुड़े और अपने आप को प्रगतिशील और उदार कहने वाले लोग भी दक्षिण कोरियाई सामंती प्रवृति का शिकार हो जाते हैं.,
एक ऐसे ही महाशय से मेरा पाला पड़ा था, पता नहीं वो दक्षिण कोरियाई सामंती प्रवृति के शिकार थे या कुछ और. वो विद्वान महाशय दक्षिण कोरिया समेत ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क के विश्वविद्यालयों में कोरियाई इतिहास पढ़ा चुके हैं,और अभी पूर्वी भारत के एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाने का कार्य कर रहे हैं. शिक्षा और व्यवस्था को लेकर उनकी प्रगतिशील सोच के बारे में सुनता रहता था और उनकी विद्वता पर मुझे कोई शक नहीं था और न अभी भी है, (उनसे मेरी कभी आमने सामने मुलाकात नहीं हुई है , केवल फेसबुक पर जान पहचान थी) लेकिन लगता है दक्षिण कोरिया के बारे में उन्हें कई चीजें पता नहीं है , होता है कई बार विद्वानों को भी कुछ चीजें पता नहीं होती है,(वैसे मुझे भी दक्षिण कोरिया के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है और मैं न कोई विद्वान हूँ , लेकिन उस देश के बारे में जो भी कहता हूँ तथ्य के आधार पर कहता हूँ और उस पर तर्क वितर्क के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ) . एक साल पहले की बात है कि उन्होंने दक्षिण कोरिया की शिक्षा व्यवस्था के बारे में फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा था कि कैसे दक्षिण कोरियाई पारंपरिक संस्कृति में शिक्षा पर जोर दिया जाता है और दक्षिण कोरिया अपनी जीडीपी का 7-8% शिक्षा पर खर्च करता है, और शिक्षा और ज्ञान पर जोर दिए जाने से दक्षिण कोरिया एक आर्थिक शक्ति बन पाया. दक्षिण कोरिया द्वारा शिक्षा को महत्व दिए जाने की उनकी इस बात से सहमत होते हुए मैंने वैसा ही कमेंट डाला और साथ में यह भी कहा कि दक्षिण कोरियाई साक्षरता दक्षता (Literacy Competency , कोरियाई में 실질문맹) यानि किसी चीज को पढ़कर उसके अर्थ समझने की क्षमता के हिसाब से काफी नीचे हैं और उन महाशय ने समझ लिया कि मैं दक्षिण कोरियाईयों को अनपढ़ कह रहा हूँ. बस मेरे कमेंट को बकवास कहकर डिलीट करते हुए उन्होंने मेरे बारे में यह कह डाला कि जो इन्सान कोरियाई भाषा को अपने अकादमिक कैरियर के लिए चुनता है और बाद में कोरियाई (दक्षिण) कम्पनी में काम करता है और कोरियाईयों को अनपढ़ कहता है वैसा इन्सान पाखंडी और गैरजिम्मेदार है. मैं समझ सकता हूँ कि उन्हें मेरी यह कमेंट देखकर जोर का झटका लगा होगा और जाहिर है इस हालत में उनके मेरे कमेंट को बकवास कहना भी जायज था . लेकिन एक विद्वान की तरह उन्हें यह भी पूछना चाहिए था कि मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ, प्रमाण मांगना चाहिए था . मैंने फिर कहा कि सर मैं खुद से बना के नहीं बोल रहा हूँ बल्कि ऐसा दक्षिण कोरियाई खुद कह रहे हैं पर नहीं वो तो दक्षिण कोरियाई विकास से इस कदर अभिभूत थे कि बोले जा रहे थे कि फिर दक्षिण कोरिया ने ऐसे लोगों कि बदौलत आर्थिक विकास कैसे कर लिया और वे इस बात पर अड़े हुए थे कि मैं खुद से यह सब बात कह रहा हूँ, मैंने उन्हें कीवर्ड (실질문맹)भी दिया था उसी से सर्च कर लेते कि क्या निकलता है परंतु उन्होंने मुझसे प्रमाण मागने की जहमत ही नहीं उठाई तो सर्च क्या खाक करते. खैर उस विद्वान महाशय ने मेरा कमेंट डिलीट क्यों किया , दूसरे भी तो पढ़ते की मैंने क्या लिखा था और सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता खैर जब यह सब चल रहा था तब उस समय मैं 19 साल के बाद अपने कॉलेज के दोस्तों से मिल रहा था, पार्टी वार्टी चल रही थी तो मैंने भी अच्छे मूड में था और मैंने कहा कि मैं जानता हूँ कि दक्षिण कोरियाई कितने ज्ञानी होते हैं और उन्हें फास्ट फॉलोवर (Fast Follower) यानि नकलची कहकर उनपर तंज कसा था लगता है कि उन्होंने उस तंज को लगता है तारीफ समझ लिया और बात ख़त्म हो गई.
मैं कहना चाहता हूँ कि अगर मैंने कोरियाई भाषा पढ़ी और कोरियाई कंपनी में काम किया तो क्या मुझे दक्षिण कोरिया की तथ्य आधारित आलोचना या आलोचनात्मक विश्लेषण करने का हक नहीं है? क्या मुझे दक्षिण कोरिया की चरण वंदना करना और स्तुति गान गाना चाहिए? या मुझे “गोदी मीडिया” वाला रुख अपना लेना चाहिए? जैसा कि तर्क वितर्क से कोसों दूर रहने वाले और वरिष्ठों की बात को ही पत्थर की लकीर समझने वाले दक्षिण कोरियाई समाज में होता है. खैर मैंने उन महाशय को पहले अनफौलो कर बाद में अनफ्रेंड कर दिया. मेरे लिए वो इसी लायक ही हो गए थे .अगर कोई उन महाशय को जानने वाला यह लेख पढ़ रहा है तो मुझे बताए कि उन्हें प्रमाण मांगने चाहिए थे की नहीं? बिना प्रमाण मांगे किसी को पाखंडी और गैरजिम्मेदार कह देना कहाँ तक जायज़ है? दक्षिण कोरिया में यह सब जायज़ हो सकता है पर कम से कम यहाँ तर्क वितर्क और वाजिब सवाल न करने वाली दक्षिण कोरियाई फासीवादी बीमारी को न फैलने दिया जाए तो बेहतर होगा , वैसे ही संघियों की सरकार ने यहाँ माहौल बहुत दूषित कर रखा है. वो विद्वान महाशय भी जेएनयू से ही पढ़े हुए हैं , और जेएनयू की शिक्षा हमें सवाल करना भी सिखाती हैै, अगर मैंने दक्षिण कोरिया की शिक्षा व्यवस्था से संबंधित सवाल किया तो क्या गलत किया ? . और हाँ विद्वान महोदय! मेरे इस आरोप को व्यक्तिगत तौर पर मत लीजिए. मैं मानता हूँ कि आप सवाल उठाने और तर्क वितर्क के हिमायती होंगे , लेकिन माफ कीजिएगा दक्षिण कोरिया से संबंधित मेरे इस मत पर आपका ऐसा कहना बहुत आपत्तिजनक था. मुझे आपके दक्षिण कोरिया के तारीफ करने से कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन अगर कोई दक्षिण कोरिया से संबंधित सवाल उठा रहा है तो उसका प्रमाण मांगिए ना कि किसी को ऐसे ही पाखंडी और गैरजिम्मेदार कह दीजिए.मैं पाखंडी और गैरजिम्मेदार तब होता , जब बिना प्रमाण के ऐसी बात कहता. लगता है मैंने आपके पवित्र फेसबुक वाल पर ऐसा कमेंट कर उसे गन्दा करने की गुस्ताखी कर दी थी.
लोगों को लग सकता है कि मैं एक साल पहले फेसबुक पर किसी के लिखे एक लेख पर मेरे लिखे एक कमेंट को हटा दिए जाने और मुझे पाखंडी और गैरजिम्मेदार कही जाने जैसी भुला दिए जाने वाली ऐसी कोई छोटी सी बात का बतंगड़ बना रहा हूँ, नहीं ये छोटी बात नहीं है. मैं सालों के दक्षिण कोरिया से सबंधित अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि दक्षिण कोरिया अपने नागरिकों और विदेशो में दक्षिण कोरियाई मूल के विदेशी नागरिकों को ही नहीं बल्कि कोरियाई भाषा जानने वाले विदेशी लोगो को भी दक्षिण कोरिया के प्रति पूर्ण समर्पण करने के लिए किसी न किसी रूप में बाध्य करता है. ( दोकदो का एक उदाहरण मैं ऊपर पेश ही कर चुका हूँ ). दक्षिण कोरिया की तथ्य आधारित आलोचना करने से मना या हतोत्साहित किया जाता है(मैं नहीं जानता कि स्कालरशिप और नौकरी देने वाले दूसरे देश किस हद तक ऐसा करते हैं) . मैं तो इस हद तक कहूँगा कि दक्षिण कोरिया द्वारा दक्षिण कोरिया में या उससे संबंधित पठन-पाठन करने वाले विदेशियों में भी दक्षिण कोरियाई संकीर्ण राष्ट्रवाद वाली बीमारी फैलाई जाती है. दूसरे शब्दों में कहूँ तो दक्षिण कोरिया को भाजपा की तरह पवित्र मानने को कहा जाता है . इस विद्वान महाशय वाले मामले में यही हुआ था. मैं तो ऐसा कहूँगा ही कि मैंने एक सवाल क्या उठा दिया , मानो दक्षिण कोरिया की ऐसी पवित्रता भंग कर दी. दक्षिण कोरिया कि ऐसी असलियत जानने के बाद से ही दक्षिण कोरिया की स्कालरशिप और नौकरी को अपने जूते की नोक पर रखता आया हूँ(हालाँकि मैंने इसी दौरान भारत में दक्षिण कोरियाई कंपनी सैमसंग में नौकरी करने की बहुत बड़ी गलती कर दी , इस बात का थोड़ा सा जिक्र मैंने नीचे किया है ). इसीलिए मुझे दक्षिण कोरिया के बारे में जो गलत लगेगा मैं उसे तथ्यों के साथ रखूँगा ही, इसके लिए मैं दक्षिण कोरिया से संबंधित अपने कैरियर की बलि जब तब चढ़ाता रहता हूँ. अगर उन विद्वान महाशय को पता चलता है कि मैंने उनके लिए ये सब लिखा है तो वो बेशक से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेरी निंदा और आलोचना करें, चुप रहें. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता . मुझे जो गलत लगा मैंने लिखा . मैं भी इस घटना को लगभग भूल ही चुका था , लेकिन इस लेख को लिखने के क्रम में मेरे दिमाग में ये घटना कौंध गई और मैंने ये सब लिख डाला.
दक्षिण कोरिया में साक्षरता दक्षता यानि किसी चीज को पढ़कर उसके अर्थ समझने की क्षमता अंत्यंत ही दयनीय अवस्था में है. अब साक्षरता दर का मूल्यांकन इस बात पर नहीं होता कि आप अक्षर पढ़ लिख लेते हैं , आप पढ़कर कितना समझ पाते हैं इससे भी होता है और दक्षिण कोरिया में 97.6% लोग ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर कुछ समझ में नहीं आता. इतनी बड़ी बात कह रहा हूँ तो प्रमाण भी दूँगा, लेकिन मेरे पास ऐसे सारे प्रमाण कोरियाई भाषा में हैं और वो विद्वान महाशय कोरियाई भाषा भी बखूबी जानते थे. दक्षिण कोरिया के प्रोफेसर द्वय 최천택. 김상구द्वारा लिखी गई और साल 2013 में आई किताब 미제국의 두기둥-전쟁과 기독교 की पृष्ठ संख्या 8 पर यह लिखा है कि दक्षिण कोरिया के 97.6% लोगों को साधारण चीजों को छोड़कर थोड़ी सी भी जटिल चीज जैसे दवाई पर लिखे निर्देश जैसी चीज पढ़कर समझ में नहीं आती, तब कहने को ज्ञान, परिवर्तन और नवीन खोज क्या घंटा होंगे. और हाँ दक्षिण कोरिया में 80% लोग उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं जो की पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है तब ऐसी हालत है. क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का? मैं उस किताब कि उस पेज का तस्वीर लगा रहा हूँ. (तस्वीर नीचे, कोरियाई जानने वाले पढ़ें कि क्या लिखा है )
इस पैराग्राफ का अंत पेज 9 में हुआ है तो पेज 9 की तस्वीर भी नीचे है
इस किताब के लेखकों ने बिना किसी प्रमाण के हवा में तो इतनी बड़ी बात नहीं कही है . मैं तो इस हद तक कहूँगा उन विद्वान महाशय के अनुसार जब अपने अकादमिक कैरियर के लिए कोरियाई भाषा चुनने और दक्षिण कोरियाई कंपनी में काम करने वाला मैं सिर्फ वहां की शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाकर पाखंडी और गैरजिम्मेदार हो सकता हूँ तब इस किताब को लिखने वाले ये दो प्रोफेसर लोग तो दक्षिण कोरिया के नागरिक और वहां के विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले हैं , तब तो इन विद्वान महोदय के अनुसार इन दोनों को “गद्दार” या “देशद्रोही” समझा जाना चाहिए और उनके द्वारा दक्षिण कोरिया कि सरकार से इन दोनों प्रोफेसरों के लिए वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कड़ी से कड़ी सजा की मांग करनी चाहिए . इसके अलावा इन विद्वान महोदय को OECD के आंकड़ों को भी गलत साबित करना चाहिए और “पवित्र” दक्षिण कोरिया और दक्षिण कोरियाईयों की ऐसी मानहानि के लिए उनके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अदालत में OECD के खिलाफ मुकदमा भी दायर करना चाहिए . मैं यह भी मान रहा हूँ कि एक समय शीतयुद्ध के दौर में अमेरिकी साम्राज्यवाद के भरपूर सहयोग से दक्षिण कोरिया की शिक्षा व्यवस्था ने आर्थिक विकास में योगदान किया , लेकिन अब उसकी प्रासंगिकता ख़तम हो रही है.
दक्षिण कोरिया में कुछ ही लोग सही मायनों में विद्वान या जानकर होंगे और बाकी भेड़ों के झुंड की तरह उसका अनुसरण करने वाले होंगे. यही होता है जब केवल दुनिया को दिखलाने के लिए ही आर्थिक विकास किया जाता है. कहने को तो शोध पत्र प्रकाशित करने और पेटेंट रजिस्टर कराने की संख्या के मामले दक्षिण कोरिया विश्व के अग्रणी देशों में है , लेकिन गुणवत्ता और अपनाने के मामले में घंटा. दक्षिण कोरिया की इस दयनीय साक्षरता दक्षता के बारे में मेरे पास और भी प्रमाण हैं , अगर किसी कोरियाई जानने वाले को चाहिए तो मैं दे सकता हूँ .मुझे मेरे मित्र सूची में कोरियाई जानने वाले मित्रों पर भरोसा है कि वो मुझसे प्रमाण मांगे बगैर मुझे पाखंडी और गैरजिम्मेदार नहीं कहेंगे. इसके पहले भी मेरे दक्षिण कोरिया प्रवास के दौरान मैंने अपने कुछ दक्षिण कोरियाई मित्रों से वहाँ की इस दयनीय साक्षरता दक्षता के बारे में सुना था और यकीन कीजिए मुझे यह जान कर बहुत जोर का झटका लगा था.
दक्षिण कोरिया की वर्तमान व्यवस्था और समाज की आलोचना करने पर मुझे कुछ दक्षिण कोरियाई भारतीय प्रशंसकों से सुनने को भी मिला है. और मैं दक्षिण कोरिया की रीढ़विहीन आलोचना तो करता नहीं , सारे तथ्य आधारित होते हैं. मुझे यह भी सुनने को मिला दक्षिण कोरिया से मुझे नौकरी मिलेगी इसीलिए दक्षिण कोरिया की आलोचना करना मेरे व्यक्तित्व को नहीं जंचता है , या अगर मैं इस तरह से आलोचना करता रहा तो कोई इच्छुक व्यक्ति कोरियाई भाषा पढ़ना नहीं चाहेगा. मान लिया जाये कि मैं लोगों के सामने दक्षिण कोरिया को एक चमचमाते आवरण में पेश करता हूँ , लेकिन मेरे ऐसा करने से दक्षिण कोरिया की विदूप्र सच्चाई, वहां का घनघोर अँधेरा पक्षजिनका जिक्र मैं इस लेख में कर रहा हूँ छुप तो नहीं जाएगा ना ? देर सवेर लोगों को इसका पता चलना ही है. दूसरी बात मैं न कभी झूठे सपने देखता हूँ और ना दिखाता हूँ. मैंने कभी किसी को नहीं कहा कि कोरियाई भाषा मत पढ़ो क्योंकि दक्षिण कोरिया बहुत ख़राब है , दक्षिण कोरिया मत जाओ क्योंकि वो देश ख़राब है वैगेरह वैगेरह . हाँ दक्षिण कोरियाई कंपनी में अगर कोई काम करने के लिए मेरी सलाह मांगता है तो मैं उसे जरुर सावधान कर देता हूँ. अगर कोई दक्षिण कोरिया या उसके समाज के बारे में मुझसे पूछता है तो जाहिर है मैं एकदम से आलोचना कर तो सकता नहीं, सारी चीजों को रखने के बाद ही आलोचना शुरू होती है (हालाँकि इस लेख को दक्षिण कोरिया का द भी नहीं जानने वाले लोग भी पढ़ेंगे, लेकिन बस बहुत हो गई दक्षिण कोरिया की तारीफ ). खुद दक्षिण कोरियाई ही उनकी देश की व्यवस्था की आलोचना करने पर मुझसे सहमत हो जायेंगे और हुए भी हैं. आखिरकार दक्षिण कोरियाईयों से ही तो मुझे इन सब सच्चाईयों का पता चला है और मेरे जो भी दक्षिण कोरियाई दोस्त हैं , उन्हें अच्छी तरह पता है कि मैं उन्हें नीचा दिखलाने या उनपर तंज कसने के लिए उनके देश या समाज की आलोचना नहीं करता बल्कि वो तो चाहते ही हैं की मैं ये सब सच्चाई दूसरों (भारतीयों) को भी बताऊँ. एक बार मेरे कोरियाई SNS साईट पर लिखे दक्षिण कोरिया के बारे में मेरे विचार देखकर , दक्षिण कोरिया के एक प्रकाशक ने मुझसे संपर्क किया था और मुझसे अनुरोध किया था कि मैं दक्षिण कोरिया के प्रति अपने आलोचनात्मक नजरिये को एक किताब की शक्ल दूं, उनके लिए मेरा नजरिया दक्षिण कोरिया में रहने वाले बहुत विदेशियों से न केवल बहुत अलग था , बल्कि दक्षिण कोरियाईयों को आईना दिखाने के बराबर भी था , उन्होंने मुझसे इस सिलसिले में कई बार मुलाकातें भी कीं, काम भी शुरू हो गया था , लेकिन मेरी पढाई का अंतिम साल था और मुझपर काफी दबाब भी था , ऊपर से मुझे अपने खर्च के लिए पार्ट टाइम भी करना पड़ता था और मैं 2-3 स्टडी सर्किल से पहले से ही जुड़ा हुआ था , वहां की जिम्मेदारियों ने भी मेरे हाथ पांव बांध दिए थे, अंततः मैं दक्षिण कोरिया के प्रति अपने नजरिये को किताब की शक्ल नहीं दे सका.
दक्षिण कोरिया में मेरी दोस्ती वहां के रेहड़ी और खोमचेवालों, दिहाड़ी मजदूर, और वहां के समाज के दबे कुचले, गरीब, मजलूम और निरीह तबके के लोगों और उनकी बेहतरी के लिए काम करने वाले जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं से भी थी, उनकी निगाह में आपका चमकदार और शानदार दक्षिण कोरिया एक नंबर का “क्रूर” और कई तरह के भेदभाव से परिपूर्ण देश है, इसके अलावा मेरी आखों ने जो दक्षिण कोरिया देखा है उसके अनुसार दक्षिण कोरिया एक बहुत बड़ा दृष्टिभ्रम है.
दक्षिण कोरिया में अन्य देशों के अलावा भारत की तुलना में कई चीजें सुविधाजनक लगती हैं , मुझे भी दक्षिण कोरिया के अपने शुरुआती दौर में लगी थी और मैं सोचता भी था कि काश भारत में भी ऐसा हो सकता . दक्षिण कोरिया में 24 घंटे आपको सभी चीजें सर्वसुलभ हैं . लेकिन जब मैंने इसके पीछे कि सच्चाई जानी तो मेरी सोच ही बदल गई. अर्थशास्त्र का एक अपरिवर्तनीय सिद्धांत है कि “इस दुनिया में फ्री लंच जैसा कुछ नहीं है” ("There is no such thing as a free lunch"). इसीलिए दक्षिण कोरिया में भी चौबीसों घंटे की सुविधा भी ऐसे ही नहीं है. अगर आप ऐसी सुविधा का उपयोग कर रहे हैं तो दूसरी तरफ से किसी को इसकी वाजिब कीमत भी नहीं मिल रही है. दक्षिण कोरिया ऐसे ही पूरे विश्व में कामकाजी घंटो के मामले में चोटी के देशों में शुमार नहीं है, जो लोग दक्षिण कोरिया के लम्बे कामकाजी घंटो की शिकायत करते हैं , वे इस चौबीसों घंटे की सुविधा के बारे में क्या सोचते हैं, क्या वो इस बात को कह सकते हैं कि सेवा प्रदाता(Service Provider) को भी आराम मिले? अब दक्षिण कोरिया के चौबीसों घंटे खुले रहने वाली दुकानों(Convenience Store) को ले लीजिये, अगर कोई ऐसी दुकान रात में बंद रहना चाहती है तो उसे कंपनी को उस हिसाब से भुगतान करना पड़ेगा, कई ऐसे दुकान चलाने वालों के पास इतनी क्षमता भी नहीं रहती की वे पार्ट टाइमर को रात के दौरान काम करने के लिए रख सकें और इस हालत में दुकानदारके परिवार के सभी सदस्यों को बारी बारी से दुकान संभालनी पड़ती है, और यह जरुरी भी नहीं है कि दुकान के समय बढ़ने से बिक्री भी बढ़ जाती हो , सिर्फ दुकान चलने वालों का कष्ट ही बढ़ जाता है और इस तरह उनकी जिंदगी में भी कष्ट होता है. सीओल के जिस मोहल्ले में मैं रहता था , वहां पर ऐसी ही दुकान चलाने वाले एक अंकल जी से मेरी अच्छी जान पहचान थी , वो शाम में अपने बेटे को दुकान संभालने दे देते थे और कभी कभी मेरे साथ शराब का दौर चलाते हुए यही सब बातें बताते थे. दक्षिण कोरिया को मैंने ऐसे ही आम लोगों के नजरिये से देखा है और ऐसा दक्षिण कोरिया उनकी नजर में अंत्यंत क्रूर और रक्तचूषक है.
कई विकसित (मानसिकता से भी)देशों में दुकानें इतनी ज्यादा देर नहीं खुली रहती और सप्ताहांत (Weekend) में भी कई जगह बंद रहती हैं क्यों उन्हें चौबीसों घंटे सुविधाएं नहीं चाहिए? लेकिन वे जानते हैं कि उनकी सुविधाएं दूसरे लोगों द्वारा दी जाती हैं और उनका भी अपना जीवन होता है और चौबीसों घंटे सेवा देने पर उनके जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आएगी , अपने लिए एकतरफा तरीके से ऐसी सेवा लेने से सेवा देने वालों की चैन की जिंदगी छिन जाएगी, उन देशों के लोग जियो और दूसरों को भी जीने दो वाली बातों में विश्वास रखते हैं. दक्षिण कोरिया(और दूसरे ऐसे देश भी) में लोग अपने लिए ऐसी चौबीसों घंटे वाली सेवा को अपनी बपौती समझते हैं और इसके लिए किसी का शोषण करने से बाज नहीं आते. दक्षिण कोरिया में लम्बे कामकाजी घंटो का जिम्मेवार केवल वहां की कम्पनियाँ ही नहीं हैं बल्कि ऐसे लोग भी हैं जो अपने लिए हर वक़्त सेवा चाहते हैं और दूसरों पर इसके लिए दबाब डालते हैं. इसके अलावा 24 घंटे फालतू में सबकुछ चालू रहने से उर्जा समेत कई संसाधनों की भरपूर बर्बादी होती है सो अलग.
एक अच्छा समाज केवल अपने आराम के लिए ही नहीं दूसरों के आराम के बारे में भी सोचता है . इसके लिए अगर हमें थोड़ी असुविधा भी होती है तो हमें थोड़ा धैर्य रखना चाहिए. दक्षिण कोरिया में यह सब देखने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से कभी किसी कॉल सेण्टर कर्मी या डिलीवरी बॉय से बदतमीजी से बात नहीं करता , उनके ऊपर के भयकर काम के दबाब को समझता हूँ. मैंने एकाध अवसरों को छोड़कर कभी भी एक्सप्रेस डिलीवरी का चुनाव नहीं किया. भारत के बाकी जगहों में तो ऐसा नहीं देखा , लेकिन जब भुवनेश्वर में था तो मेरे इलाके में हर रोज दोपहर को 3-4 घंटे के लिए सारी दूकानें बंद हो जाती थीं. असुविधा होती थी तो कभी कभी गुस्सा भी आता था, लेकिन जब ऊपर वाली बात दिमाग में आ जाती थी तब मेरा गुस्सा ठंढा पड़ जाता था.
दक्षिण कोरिया का डिलीवरी सिस्टम पूरी दुनिया में सबसे बेहतरीन सिस्टम में गिना जाता है. क्या गोली की गति से डिलीवरी करते हैं , मैं भी दक्षिण कोरिया के इस सिस्टम का एक बारगी कायल हो गया था , लेकिन मैं किस्मतवाला या जो कह लीजिये मेरे कुछ कोरियाई दोस्त पार्ट टाइम या फुल टाइम दोनों डिलीवरी का ही काम किया करते थे , जब इस डिलीवरी सिस्टम के पीछे की सच्चाई मुझे पता चली तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे , उन्होंने जो बताया मैं उस बात को यहाँ न रखते हुए , तथ्यों के आधार पर अपनी बात रखना चाहूँगा . बस इतना कहना चाहूँगा कि उन्होंने मुझसे यह दरख्वास्त की थी कि अगर कोई डिलीवरी वाला थोड़ा झुंझला के बात करे तो मुझे उसपर गुस्सा नहीं कर उसके ऊपर काम के भयंकर दवाब को समझना चाहिए . आपको पता है कि दक्षिण कोरिया में डिलीवरी मैन का कितना भयंकर शोषण होता है , कम्पनी द्वारा आपको मुफ्त या काफी कम कीमत में जल्द डिलीवरी दी जा सके इसीलिए डिलीवरी मैन को हरेक डिलीवरी के 800 कोरियाई वोन (दक्षिण कोरिया में 800 वोन की उतनी ही औकात है जितनी हमारे यहाँ 5 या 10 रुपये की है ) मिलते हैं , कम से कम उन्हें एक दिन में ढंग का कमाने के लिए औसतन 100 डिलीवरी करनी पड़ती है और इसके लिए उन्हें बिना ढंग से खाए पिए खूब भागमभाग करनी पड़ती है और इतना ही नहीं डिलीवरी पर जाने से पहले उन्हें सुबह सवेरे डिलीवरी सेंटर पर पहुँच कर पार्सलों की खुद ही छंटाई करनी पड़ती है , जबकि कंपनी को इसके लिए अलग से आदमी रखने चाहिए, और अमूमन एक डिलीवरी मैन को छंटाई करने में 5-6 घंटे लगते हैं और इसके लिए उन्हें अलग से पैसे भी नहीं मिलते , और जहाँ पर ये छंटाई का काम करते हैं वहां कई जगहों पर शौचालय या आराम करने की जगह जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं होतीं, छंटाई का काम ख़तम होते ही लंच का समय हो जाता है और उन्हें डिलीवरी के काम पर जाना होता है लेकिन समय बचाने के लिए कई डिलीवरी मैन लंच तक नहीं कर पाते, कई जगह लिफ्ट की सुविधा न होने पर इन्हें भारी पार्सल लेकर सीढ़ियों से दौड़ कर जाना पड़ता है, लिफ्ट में रहने के दौरान जो भी कुछ पल इन्हें आराम के मिलते , वो भी छिन जाते हैं. इसी बीच भूखे पेट को जैसे तैसे भरने का वक़्त भी चाहिए , और जब रात को वापस आते हैं तो एक ही बार में ढेर सा खा कर कटे पेड़ जैसे बिस्तर पर गिर जाते हैं. और आपको क्या लगता है कि उन्हें हरेक डिलीवरी के पुरे 800 वोन मिल जाते हैं? जी नहीं उसमें भी 10% वैट और 10% डिलीवरी सेंटर का कमीशन कटता है और इस तरह उन्हें असल में 640 वोन हरेक डिलीवरी के मिलते हैं. और इतना ही नहीं डिलीवरी मैन को खुद की अपनी गाड़ी या बाइक का इंतजाम करना होता है , और उसके तेल, मरम्मत और बीमा का खर्च खुद उठाना पड़ता है इसके अलावा डिलीवरी यूनिफार्म और अपनी गाड़ी को डिलीवरी कंपनी का रंग या लोगो पेंट कराने के पैसे खुद देने होते हैं और दक्षिण कोरिया में बड़ी बड़ी कंपनियों के डिलीवरी क्षेत्र में उतरने से प्रतियोगिता बढ़ गई है और इस तरह कमीशन भी घटता जा रहा है , और कंपनी अपने मुनाफे के लिए डिलीवरी मैन का कमीशन तो और काटेगी ही.([카드뉴스]달리고 달린다···택배노동자의 하루, http://h2.khan.co.kr/20170710161700... ) आंकड़ों के अनुसार पिछले 4 सालों में ऐसे ही 70 डिलीवरी मैन की मौत इस तरह से अधिक काम करने की वजह से हो गई और इनके लिए दक्षिण कोरिया में कोई ऐसा श्रम कानून भी नहीं है जो इनके इस भयंकर शोषण पर लगाम लगा सके. (그알, 대한민국 '인간 무제한 요금제' 참상 고발, http://www.nocutnews.co.kr/news/481...) यही है आपका आदर्श दक्षिण कोरिया का आर्थिक विकास मॉडल जो मजदूरों के खून की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेने में विश्वास करता है. यूँ तो पूंजीवाद ही मजदूरों के निर्मम शोषण पर आधारित है , लेकिन दक्षिण कोरिया में पूंजीवाद का घालमेल वहां की कन्फ्यूसिअस की सामंतवादी अवधारणा के साथ साथ कम्युनिज्म के प्रति घोर शत्रुतापूर्ण रवैये के साथ हो जाता है और वह और भी क्रूर हो जाता है. लीजिये “विकसित” अर्थव्यवस्था में शुमार दक्षिण कोरिया अर्थव्यवस्था में वहां के कामगार दुनिया के अन्य विकसित देशों की तुलना में गधे से भी ज्यादा काम करके के बावजूद पर्याप्त मजदूरी भी नहीं पाते हैं. मैंने ऊपर ही कहा है कि दक्षिण कोरिया अन्य पूंजीवादी देशों कि तुलना में कामगारों का खून आखिरी बूंद तक निचोड़ लेता है और आपके लिए “आदर्श” दक्षिण कोरियाई अर्थव्यवस्था उन कामगारों के इसी अतिरिक्त से भी ज्यादा श्रम से पैदा किये गए मूल्य पर ही फलती फूलती है. चलिए आकड़ों के हिसाब से भी देख लेते है. OECD के अनुसार दक्षिण कोरिया के कामगार OECD के औसत से सालाना 1.7 महीने ज्यादा काम करते हैं. और एक समय अपने कामकाजी घंटों के लिए कुख्यात जापान की तुलना में सालाना 44 दिन यानि 2 महीने ज्यादा काम करके जापान की मजदूरी का 88.2% और जर्मनी कि तुलना में सालाना चार महीने ज्यादा काम कर जर्मनी की मजदूरी का 70% ही पाते हैं. अमेरिका से भी तुलना कि जाए तो दक्षिण कोरिया के कामगार अमेरिका की तुलना में सालाना 1.6 महीने ज्यादा काम कर , अमेरिका की कुल मजदूरी का 53.9% ही कमा पाते हैं (한국 노동시간 OECD 2위… 독일보다 넉달 더 일하고 임금은 70% http://news.hankyung.com/article/20...). दक्षिण कोरिया में मजदूरी भले ही पिछड़े और गरीब भारत से बहुत ज्यादा है , लेकिन दक्षिण कोरिया में इस मजदूरी से ढंग का जीवन जीना मुश्किल है , अगर आप अकेले हैं तो ठीक है और अगर अकेले हैं , विदेशी हैं और दक्षिण कोरिया से कम आमदनी वाले देश से हैं और दक्षिण कोरिया में ठीक ठाक नौकरी है तब तो सावन के अंधे की तरह आपको सबकुछ हरा ही हरा लग सकता है. लेकिन परिवार रख रखने वाले दक्षिण कोरियाईयों के नजरिये से भी देखिये , इस आमदनी में दक्षिण कोरिया में परिवार चलाना घोर मुश्किल है और दक्षिण कोरिया में सामाजिक सुरक्षा का तंत्र बहुत ही कमजोर भी है . और इसी वजह से दक्षिण कोरिया पूरी दुनिया में सबसे कम जन्म दर वाला देश भी है.
इतना ही नहीं ITUC (International Trade Union Confederation) के अनुसार दक्षिण कोरिया कामकाजी लोगों के लिए दुनिया के 10 सबसे बुरे देशों में शुमार है (https://www.ituc-csi.org/IMG/pdf/em...). भारत में मजदूरों की हालत तो जगजाहिर है ही और भारत और दक्षिण कोरिया तो मजदूरों का हक कुचलने में भाई-भाई हैं और उसी ITUC ने भारत और दक्षिण कोरिया को मजदूरों के अधिकारों के मामले में सबसे नीची श्रेणी वाले देशों में रखा है. (한국, 4년째 ‘노동기본권 보장 없는’ 꼴찌 등급 http://news.khan.co.kr/kh_news/khan... )
दक्षिण कोरिया के भारतीय प्रशंसक मुझसे कहते रहते हैं कि मैं दक्षिण कोरिया के पीछे क्यों पड़ा रहता हूँ , भारत पर मेरी नजर क्यों नहीं जाती, तो जनाब मैं भारत पर भी मेरी नजर उतनी ही रहती है , जितनी दक्षिण कोरिया पर , और क्या मैं दक्षिण कोरिया की समस्या का जिक्र करने के लिए , भारत की सारी समस्याओं के हल होने का इंतजार करूँ? क्या आप किसी कि आलोचना करने से पहले अपने अन्दर की सारी कमियों को दुरुस्त करने के बाद किसी की आलोचना करते हैं ? और आप लोग जो बात बात पर भारत की तुलना दक्षिण कोरिया से करते हो और दक्षिण कोरिया को बेहतर बताते रहते हो , मैं उससे असहमत हूँ . यह ठीक है कि दक्षिण कोरिया से भारत कम से कम तकनीक के मामले में कुछ सीख सकता है, सीखे इसमें क्या आपत्ति वाली बात हो सकती है, दक्षिण कोरिया वाले तो चाहते ही हैं कि आप केवल उनके बारे में ही सीखें , और कोरिया! कोरिया ! चिल्लाते रहिए लेकिन वो अपने लोगों को आपके देश के बारे में उतना बतायेंगे ही नहीं. इसका जिक्र मैं ऊपर ही कर चुका हूँ कि आपका देश केवल उनके लिए बाज़ार भर ही है , वो भारत में आकर भी यहाँ का तरीका नहीं अपनाकर अपनी घोर अमानवीय कार्य संस्कृति ही थोपेंगे. अन्य देशो की कंपनियों की तरह दक्षिण कोरिया की कंपनियां भी आयें , लेकिन अपनी मध्ययुगीन दास प्रथा जैसी अपनी कार्य संस्कृति न थोपे तो बेहतर रहेगा. जहाँ तक तकनीक की भी बात है अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र को छोड़कर(इसमें भारत दक्षिण कोरिया से मीलों आगे है ) , भारत ने पुल और सुरंग निर्माण जैसी आधारभूत संरचना के निर्माण में दक्षिण कोरिया के बराबर तरक्की कर ली है , इसके अलावा दक्षिण कोरिया की विश्व में उतनी उन्नत तकनीकी दक्षता भी नहीं है , जितना की उसका ढोल पीटा जाता है. कई चीजों में तो खुद दक्षिण कोरिया विदेशों का मुंह ताकता रहता है , दक्षिण कोरिया अभी तक केवल दूसरे विकसित औद्योगिक देशो की तकनीक सीखकर जल्दी से उसका उत्पादन करके विश्व बाज़ार में अपनी जगह बनाये हुआ था , लेकिन अब ऐसे देशों की कमी नहीं है जो ऐसा कर सकते हैं, कबतक अपनी खुद कि तकनीक के बिना दूसरों की उधार कि तकनीक पर दक्षिण कोरिया अपना काम चलाएगा? यहाँ तक कि अपने आप को अग्रणी मानने और अपने प्रशंसकों से मनवाने वाला दक्षिण कोरिया निर्माण क्षेत्र में भी तकनीकी रूप से पूर्ण आत्मनिर्भर भी नहीं है, अभी पिछले अप्रैल 2017 को ही दक्षिण कोरिया की सबसे ऊँची और विश्व की पांचवी सबसे ऊँची ईमारत लोत्ते वर्ल्ड टावर का उद्घाटन हुआ , कई लोग खासकर दक्षिण कोरिया के प्रशंसक इसे देख कर अभिभूत हो गए होंगे कि दक्षिण कोरिया ने क्या शानदार इतनी ऊँची ईमारत बनाई है और दक्षिण कोरिया सही में तकनीक का विश्वगुरु बनने की और अग्रसर है , लेकिन जरा ठहरिये उसकी डिजाईन से लेकर नींव बनाने का काम सारा विदेशी कंपनियों ने ही किया है , दक्षिण कोरिया ने सिर्फ कंक्रीट ही बिछाया है , इसके अलावा इंचोन में दक्षिण कोरिया का समुद्र पर बना सबसे लम्बा पुल देखकर आपकी सांसे थम गई होंगी , इस पुल का डिजाईन और उसपर केबल लगाने का काम भी विदेशी कंपनियों ने ही किया है , दक्षिण कोरिया ने यहाँ भी बस कंक्रीट ही बिछाया है ,विदेशों में दक्षिण कोरिया की कंपनियों द्वारा बनायीं गयी प्रसिद्ध इमारतों के पीछे भी यही कहानी है . बिजलीघर में जो गैस टरबाईन लगता है , उसको खुद से बनाने की औकात दक्षिण कोरिया के पास नहीं है . यहाँ तक की दक्षिण कोरिया के अग्रणी माने जाने वाले जहाज निर्माण, स्मार्ट फ़ोन , एलसीडी डिस्प्ले, स्टील और वहां निर्माण के क्षेत्र में उसकी असली औकात का अब पता चल रहा है . मैं हवाबाजी तो करता नहीं , यह सब दक्षिण कोरिया का सबसे बड़ा अखबार ही कह रहा है, प्रमाण प्रस्तुत करता हूँ (कोरियाई भाषा में) (한국 最高 건축에 '한국 기술'은 없다 http://news.chosun.com/site/data/html_dir/2016/04/19/2016041900380.html?related_all
발전소 대형 터빈, 大橋 설계… 외국 기술만 쳐다보는 한국http://news.chosun.com/site/data/html_dir/2016/04/19/2016041900488.html?related_all ).
सेमीकंडक्टर दक्षिण कोरिया का एक प्रमुख निर्यात उत्पाद है और दक्षिण कोरिया विश्व का दूसरा या अब पहला सेमीकंडक्टर का निर्माता है, लेकिन पता है सेमीकंडक्टर बनाने वाली जो मशीन आती है, दक्षिण कोरिया उसका आयात जापान से करता है, जाहिर सी बात है कि दक्षिण कोरिया की औकात इस मशीन को बनाने की नहीं है. दक्षिण कोरिया सेमीकंडक्टर बेच के जितना पैसा कमाता है तो उससे ज्यादा पैसा जापान अपने सेमीकंडक्टर बनाने की मशीन दक्षिण कोरिया को बेच कर कमा लेता है(축적의 시간, पृष्ठ संख्या 417). तो बताओ यहाँ तकनीक में बाप कौन? मोबाइल फ़ोन के साथ भी यही बात है , ज्यादातर मोबाइल टेस्ट करने या बनाने वाली मशीनें भी जापान से ही आती हैं. मैंने खुद दक्षिण कोरिया में सैमसंग की मोबाइल फ़ोन की फैक्ट्री को देखा है, कई मशीनों के निर्माताओं के नाम से ही पता चल रहा था कि वे जापानी हैं, वहां के इंजीनियरों से पूछने से भी यही पता चला. इसके अलावा दक्षिण कोरिया में सारे ब्रॉडकास्टिंग उपकरण भी जापान से आयातित हैं. दक्षिण कोरिया के IT उद्योग की भी यही हालत है , सारा मटेरियल, मशीनें जापान से आती हैं. इस हालत में दक्षिण कोरियाई क्या खाक जापान का क्या मुकाबला करेंगे , पहले चीन से तो निबट लें और देखिएगा चीन भी आने वाले सालों में ऐसी अच्छी मशीनें बनाकर दक्षिण कोरिया को भी कम कीमत पर बेचेगा. और आपको पता ही है कि यह जमाना नए आईडिया, नई खोज का है लेकिन दक्षिण कोरिया का तंत्र ऐसा है की वहां नए आईडिया से कोई बिजनेस या उद्योग शुरू करने में कम से कम 3 साल का वक्त लगता है , पहले तो आप आईडिया खोजिये , फिर अगले साल पेपर पर योजना बनाकर दक्षिण कोरिया के उद्योग विभाग को दीजिए , फिर वो अगले एक साल तक इसकी जाँच करेंगे कि ये आईडिया ठीक या प्रासंगिक है की नहीं तब जाकर आपको सरकार से फण्ड मिलेगा और ऐसे ही तीन साल आपके गए और पता ही है की आजकल साल दर साल तकनीक बदलती रहती है , और तीन साल में तो कई नए आईडिया आ जाएंगे. इसके अलावा दक्षिण कोरिया में इसके लिए बजट भी सीमित है, और नए आईडिया से उद्योग शुरू करने के लिए फण्ड देने के लिए वर्तमान में चल रहे उद्योगों के लिए फण्ड में कटौती करनी पड़ेगी , जो कि मुश्किल है(축적의 시간, पृष्ठ संख्या 421). और दक्षिण कोरिया के प्राइवेट सेक्टर को देखें तो उनका अनुसंधान(R&D) सिर्फ तात्कालिक लाभ दिलाने वाले क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है, भविष्य के लिए कोई ठोस योजना नहीं रहती. जापान की कंपनियों ने सिर्फ अपने प्रबंधन (Management) की गलती की वजह से दुनिया के बाजारों में दक्षिण कोरियाई कंपनियों जैसे सैमसंग , LG के सामने अपनी बादशाहत क्या खोई, लोग भूल गए कि जापान की कंपनियों के पास उनकी अपनी और असली टेक्नोलॉजी है ,ऊपर दिए गए सेमीकंडक्टर बनाने वाली मशीन का ही उदाहरण ले लीजिए. जापान का कुछ नहीं बिगड़ेगा वो भविष्य में कई दशकों तक अपनी इस टेक्नोलॉजी के बदौलत ही खाता पीता रहेगा , वहीँ हद दर्जे की परजीवी दक्षिण कोरियाई कंपनियों के लिए भविष्य अंधकारमय हो जायेगा और उसके साथ दक्षिण कोरिया का भी. एक बात और भी समझ लीजिये कि 70-80 और 90 के शुरुआती दशक में दक्षिण कोरिया के सामानों की गुणवत्ता का स्तर वही था , जो आप मेड इन चाइना का समझते हैं. दक्षिण कोरियायियों ने गुणवत्ता में उसके बाद जरुर सुधार किया , लेकिन अब चीन जिस गति से गुणवत्ता में सुधार कर रहा है , उससे जरुर दक्षिण कोरिया की बनी चीजें जल्द ही एक बार फिर से बाजारों में धूल फांकेंगी, जैसे आज से 30 साल पहले फांकती थीं आपको पता ही है कि कीमत के मामले में भी चीन से कोई नहीं जीत सकता.. शुरुआत में दक्षिण कोरिया ने चीन को कम गुणवत्ता वाले पार्ट पुर्जे और मशीनें बीच कर खूब पैसा कमाया , अब चीन खुद से ही यह सब बनाने लगा है तो दक्षिण कोरिया चीन का बाजार धीरे धीरे खोता जा रहा है.
दक्षिण कोरियाई गलती कर उससे सीखने (Trial & Error) वाली चीज पर भरोसा नहीं करते और उनको सब चीज परफेक्ट ही चाहिए , जबकि अमेरिका, जर्मनी और जापान ने गलतियों से काफी कुछ सीखकर तकनीक की दुनिया में अपनी बादशाहत कायम की है और ये तथाकथित “परफेक्शनिस्ट” दक्षिण कोरियाई समझते हैं कि वो दुनिया जीत लेंगे अरे अपनी कब्र वो खुद ही खोद रहे हैं. ऐसे “परफेक्शनिस्ट” दक्षिण कोरियाई जैसे तैसे करके नंबर 1 बने रहना चाहते हैं. धैर्य नाम की चीज इन्हें नहीं मालूम. अगर दक्षिण कोरियाई कंपनियां किसी विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग विभाग में पूंजी लगाती हैं तो उन्हें तुरत फुरत मुनाफा देने वाला आईडिया चाहिए, भविष्य के लिए दीर्घकालिक योजना से उन्हें कोई मतलब नहीं है , जबकि जर्मनी और जापान जैसे औद्योगिक और तकनीक में सिरमौर देश दीर्घकालिक योजनायें बनाते हैं और जैसे तैसे नंबर 1 बने रहने कि होड़ में नहीं रहते , और देखिए विज्ञानं की दुनिया में किसकी पूछ है. तकनीक के मामले में दुनिया में किसकी धाक है या जिनपर भरोसा किया जाता है जापान, जर्मनी या दक्षिण कोरिया पर? और एक बात दक्षिण कोरिया ने विज्ञानं के क्षेत्र में कितने नोबेल प्राइज जीते हैं? या इलेक्ट्रॉनिक्स में ही सोनी के “वॉकमेन” या एप्पल के “आईफोन” जैसा आविष्कार किया है ? दक्षिण कोरियाई माहौल में नवाचार (Innovation) के लिए कोई जगह नहीं है . दक्षिण कोरिया के ऐसे माहौल को मैं मशहूर फिल्म थ्री इडियट्स(Three Idiots) के माध्यम से समझाना चाहूँगा. मान लीजिये थ्री इडियट्स की पृष्ठभूमि भारत के बजाय दक्षिण कोरिया होती तो कैसा रहता. सबसे पहले तो रेंचो जैसे किरदार की हिम्मत वायरस जैसे किरदार को चूँ करने तक ही नहीं होती, उसे ऐसा ही करने पर फेल करके पढ़ाई के बीच से ही निकाल दिया जाता, राजू और फरहान अपने मन की कुछ नहीं कर पाते, रेंचो जैसे किरदार से से दोस्ती तो दूर की बात बात होती, वो चुपचाप अपनी इच्छाओं का गला घोंट के पढाई करते और दक्षिण कोरिया की सैमसंग जैसी कंपनी में रोजाना 12-14 घंटे और उससे ज्यादा काम करते करते खत्म हो जाते. रेंचो जैसा किरदार दक्षिण कोरिया छोड़कर अमेरिका या यूरोप के किसी देश में जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करता और चतुर रामलिंगम जैसा किरदार दक्षिण कोरियाई समाज के लिए आदर्श होता . यह सही है कि भारत में भी ऐसा होता है , लेकिन भारत में कम से कम नयी खोज करने का वातावरण तो है , आप जुगाड़ टेक्नोलॉजी को हल्के में मत लीजिए, अगर उनके पास उचित संसाधन होते तो और बेहतर होता. मैं बात कर रहा हूँ नए आईडिया आने की, कम से कम भारतीय माहौल में आप कुछ नया सोच सकते हैं , लेकिन दक्षिण कोरियाई माहौल में यह भी बहुत ही मुश्किल है.
दक्षिण कोरिया के मशहूर वैज्ञानिक ह्यून थेक ह्वान (Hyeon Taeghwan, 현택환 ) ने दक्षिण कोरिया में विज्ञानं की हालत की तुलना धीरे धीरे गरम होते हुए पानी में पड़े उस मेढक से की है , जिसका शरीर ख़राब होता जाता है और अंत में वह दम तोड़ देता है (축적의 시간, पृष्ठ संख्या 348). और एक बात बताता चलूँ कि दक्षिण कोरिया में बुनियादी विज्ञानं (Basic Science) की हालत बहुत ज्यादा ख़राब है और ये सिर्फ प्रयुक्त विज्ञानं (Applied Science) में ठीक ठाक हैं.
मैंने दक्षिण कोरिया के संबंधित अपने पिछले दो लंबें लेख में और इस लेख में भी 축적의 시간 नामक किताब का उल्लेख बार बार किया है. दक्षिण कोरिया की वर्तमान विज्ञान और टेक्नोलॉजी और वहां के उद्योगों की स्थिति को समझने के नजरिये से एकदम सही किताब है. अगर कोरियाई भाषा पढ़ने या उसके अच्छे जानकार मेरा ये लेख पढ़ रहे हैं तो मैं उनसे ये अनुरोध करूँगा कि अगर आप कोरियाई में छल्सू और राजू(कोरियन सेंटर वाले ही इसे समझेंगे) जैसी किताबों से से ऊँची स्तर वाली किताब को पढ़ कर समझ सकते हैं या दक्षिण कोरिया में रहने वाले अगर कल्चर के कुएं से निकलकर कुछ दूसरा भी सोच रहे हैं तो आपको 축적의 시간 किताब जरुर पढनी चाहिए. दक्षिण कोरिया के उजले पक्ष के अलावा अंधकारपूर्ण पक्ष की जानकारी भी रखेंगे तो आपका कोरिया ज्ञान भी संतुलित रहेगा.
दक्षिण कोरिया भारत से , मानव विकास,बिजली, पानी, सफाई और कानून व्यवस्था के मामले में जरुर भारत से कई गुणा बेहतर है , लेकिन यह सब राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति का मामला है . एक दक्षिण कोरिया के भारतीय प्रशंसक ने कहा था कि दक्षिण कोरिया से हम सीख सकते हैं कि कैसे देश को साफ़ सुथरा रखा जा सकता है. कभी अपने देश के कुछ हिस्सों पर भी कुछ नज़र डाल लिया करो, क्यों हर मामले में दूसरे देशों से सीखने की बात करते रहते हो, साफ़ सफाई के मामले में अपने सिक्किम और मेघालय जैसे राज्यों से प्रेरणा लो न , और क्या कहते हैं कि एशिया का सबसे साफ़ सुथरा गाँव हमारे मेघालय में ही है (This Is Asia’s ‘Cleanest Village’ And It Is In India http://swachhindia.ndtv.com/asias-cleanest-village-india-5039/ ), मेघालय के उस गाँव के साथ साथ सिक्किम और केरल जैसे साफ़ सुथरे राज्यों की केस स्टडी कर उसे पूरे भारत में क्यों नहीं लागू किया जा सकता ? इसके अलावा दूसरे राज्यों में भी कई साफ़ सुथरी और चमचमाती जगहें होंगी फिर क्यों दक्षिण कोरिया से इस मामले में सीखने की बात करते हो?(सिक्किम और मेघालय जैसे राज्यों में K-POP की लोकप्रियता से इसका कोई संबंध नहीं है) मानव विकास के मामले में अपने केरल से सीखो , केरल तो अब रोटी, कपडा और मकान कि मूलभूत समस्या से उठ कर भारत का पहला पूर्ण डिजिटल राज्य हो गया है (Kerala declared first digital state in India: All you need to know , http://indiatoday.intoday.in/education/story/kerala-digital-state/1/607961.html ) और तो और केरल सरकार ने इन्टरनेट को मूलभूत मानव अधिकार में शामिल कर लिया है (Kerala becomes first Indian state to declare Internet a basic human right http://indiatoday.intoday.in/technology/story/kerala-first-indian-state-declare-internet-basic-human-right/1/906980.html ). वैसे दक्षिण कोरिया के प्रशंसकों के लिए ये भी बता दूं कि पिछले 30 जून 2017 को केरल सरकार और दक्षिण कोरिया के बीच इलेक्ट्रॉनिक्स, आईटी और आधारभूत संरचना के निर्माण के क्षेत्र में सहयोग की संभावनाओं पर बात चीत हुई है(Kerala and South Korea to co-operate in IT http://www.business-standard.com/article/pti-stories/kerala-and-south-korea-to-co-operate-in-it-117063000983_1.html ) अब ये मत समझ लेना कि उसके पहले दक्षिण कोरिया ने ही केरल में सब कुछ किया था , केरल की इस तरक्की को देखकर वहां लार टपकाए हुए पहुँच गया होगा कोई दक्षिण कोरियाई अधिकारी. ये केरल सरकार कि राजनीतिक इच्छाशक्ति ही थी , जो सीमित संसाधनों के बावजूद भारत में मानव विकास कि इस बुलंदियों को छु सका. इसीलिए कहता हूँ अपने घर की चीजों से ही सीखोगे तो वही काम आएगा , क्यों नंगे पैरों से बर्फ से ढकी जमीन पर चलने की बात करते हो? कोरिया(दक्षिण) से नहीं केरल से सीखो. जिस केरल के विकास मॉडल की तारीफ संयुक्त राष्ट्र समेत कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां कर चुकी हैं उस केरल से सीखो. इसके अलावा निर्यात आधारित दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था की तुलना भारत से नहीं की जा सकती , दक्षिण कोरिया जहाँ विदेशी बाजारों पर पूरी तरह से आश्रित है , वहां भारत के पास अपना खुद का ही इतना विशाल घरेलू बाज़ार है कि उसे विदेशी बाज़ार की जरुरत ही नहीं है , अगर सही मायनों में पूरे भारत में पर्याप्त भूमि सुधार कर , आम भारतीयों की क्रय शक्ति को बढ़ाया जाए , तब भारत की अर्थव्यवस्था का जलवा देखिएगा. दक्षिण कोरिया जैसा परजीवी बनने की जरुरत ही नहीं होगी. घरेलू बाज़ार के लिए अपनाई गई तकनीक को कई प्रयासों के बाद उन्नत कर इसमें दक्षता पाई जा सकती है . चीन ने यही किया है. यदि भारत चीन से अंग्रेजों द्वारा बनाई गई सीमा और उससे संबंधित विवाद को सचमुच में ईमानदारी के साथ सुलझा कर सचमुच एक साझा बाज़ार की स्थापना कर लेता है तब देखिए पासा कैसे पलटता है. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दक्षिण कोरिया से सीखने वाली बात पर यह कहा जा सकता है कि भले ही दक्षिण कोरिया में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता , लेकिन दक्षिण कोरिया में उपरी स्तर पर भ्रष्टाचार देखकर आपकी आखें खुली की खुली रह जाएंगी. रही बात भारत की तो क्या भारत आजादी के बाद से ही आज जैसा भ्रष्ट था? दक्षिण कोरिया से सीखने की बात कहने वालों को नेहरु- शास्त्री का दौर जान लेना चाहिए , भारत में भ्रष्टाचार कैसे बढ़ा और कैसे इसपर रोक लगाई जा सकती है , इसका जबाब आपको भारत में ही मिल जाएगा इसके लिए दक्षिण कोरिया जैसे देशों की तरफ देखने की जरुरत नहीं है. आपके देश भारत में ही एक से बढ़कर इमानदार नेता भी हुए हैं और अभी भी हैं. कभी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं की तरफ भी देख लीजिए , दक्षिण कोरिया में उनके छटांक भर ईमानदारी वाला भी किसी मुख्यधारा की पार्टी का नेता नहीं मिलेगा. लेकिन आपकी नज़र में तो कम्युनिस्ट खराब हैं , क्यों सही कहा ना? यह भी समझ सकता हूँ कि मोदी राज में भारतीय राजनीति की बची खुची नैतिकता इस कदर रसातल में पहुँच चुकी है कि कुछ लोग भ्रष्टाचार मिटाने के लिए दक्षिण कोरिया और अब पाकिस्तान जैसे आधे अधूरे लोकतंत्र वाले देशों से सीखने की बात करने लगे हैं और मोदी राज में उसके भक्तों की करतूतों ने खासकर मोब लीन्चिंग हमारा सर पूरी दुनिया के सामने कब का नीचा कर दिया है. देर सवेर इस जालिम मोदी सरकार का अंत होना ही है .
कोरियाई भाषा पढ़ने वाले ये न समझ लें कि मैं दक्षिण कोरिया और भारत के बीच आर्थिक संबंध का विरोध कर उनके रोजगार की संभावनाओ का भी विरोध कर रहा हूँ. मेरा बस इतना कहना है कि जिस चीज में भारत की दक्षता है , उसमें दक्षिण कोरियाई कंपनियों को क्यों घुसने दिया जाये? वैसे आप कोरियाई पढ़ने वालों को मालूम है या नहीं कि भारत ने दक्षिण कोरिया से 33 वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगा रखा है , जो किसी भी अन्य देश द्वारा दक्षिण कोरियाई वस्तुओं के आयात पर लगाये गए प्रतिबंध से ज्यादा है. इसकी वजह भारत द्वारा परंपरागत रूप से अपने रसायन और स्टील उद्योग को संरक्षण देना है (한국 대상 수입규제 인도가 가장 높아…미국이 2위 http://www.ekn.kr/news/article.html... ). और दक्षिण कोरिया क्या आपके देश का विकास करने आया है ? वह भी यूरोप और अमेरिका के देशों की तरह आपके देश के संसाधनों को लूटने ही आया है. दक्षिण कोरियाई स्टील कंपनी पॉस्को इसका एक उदाहरण है. जब 2005 में ओडिशा सरकार और पोस्को के बीच ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले में 12 अरब डालर यानि अभी के हिसाब से लगभग 77 हजार करोड़ रुपये(उस समय यह रकम 32 हजार करोड़ से 52 हजार करोड़ के बीच थी ) की लागत से पॉस्को द्वारा लौह इस्पात कारखाने की स्थापना की घोषणा की गई और यह भारत में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा किया गया सबसे बड़ा निवेश था . अच्छी बात थी कि ओडिशा में कारखाना लगता और कई हजार लोगों को रोजगार मिलता , लेकिन पता है पॉस्को जितने पैसे से कारखाना लगाती उससे ज्यादा कीमत के कीमती लौह अयस्क को लूट कर ले जाती , विस्थापन और पर्यावरण की समस्या होती सो अलग. पॉस्को को ओडिशा के लौह अयस्क की खुदाई का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय बाजार से काफी कम कीमत पर दिया गया था. अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रति टन लौह अयस्क की कीमत 3500 रुपये है लेकिन पॉस्को को इसके आधे से भी कम दर यानि 1200 रुपये प्रति टन के हिसाब से लौह अयस्क की खुदाई करने का अधिकार दिया गया और इससे ओडिशा सरकार को प्रति टन 2300 रुपये का घाटा होता और पॉस्को को दिए गए 60 करोड़ टन लौह अयस्क की खुदाई के अधिकार को अगर प्रति टन 2300 रूपए से गुणा किया जाये तो घाटे की रकम 1 लाख 38 हजार करोड़ तक पहुँच जाती , जो पॉस्को के निवेश किये जाने वाले 77 हजार करोड़ की लगभग दुगुनी होती. बताइए यहाँ किसका विकास हो रहा था? इसके अलावा ओडिशा आने से पहले पॉस्को ने ब्राजील में इसी तरह की करतूत करने की कोशिश की थी , लेकिन ब्राजील की सरकार ने पॉस्को को लात मार कर भगा दिया. खैर अब तो तीव्र विरोध के बाद पॉस्को ने इस प्रोजेक्ट से वापस हाथ खींच लिया (Signing Away The State To POSCO http://archives.peoplesdemocracy.in/2005/0807/08072005_orissa.htm
As Posco exits steel project, Odisha is left with thousands of felled trees and lost livelihoods
https://scroll.in/article/832463/as-posco-exits-steel-project-odisha-is-left-with-thousands-of-felled-trees-and-broken-job-promises ) मैंने पॉस्को के इस प्रोजेक्ट के रद्द होने पर बहुत जश्न मनाया था . यही पॉस्को स्कालरशिप देने का भी काम करता है , मुझे भी किसी दोस्त ने पॉस्को की स्कालरशिप लेने की सलाह 2006 में दी थी , पर मैंने सलाह मानने से इंकार कर दिया था. मुझे अगर पॉस्को द्वारा ओडिशा में इस लूट का पता नहीं चलता और मैं बिना कुछ सोचे समझे उस वक़्त के अपने बुरे दौर में अगर मैं इस हद दर्जे की इस लुटेरी पॉस्को का स्कालरशिप ले लेता तो बाद में बहुत पछताता और इसकी बहुत बड़ी संभावना थी कि मैं इसकी स्कालरशिप बीच में ही छोड़ देता . हाँ मैं दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी दूध का धुला नहीं कह रहा हूँ. मैं वैसे भी किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा दिए जाने वाले स्कालरशिप का विरोधी रहा हूँ. मैंने ऊपर कहा था कि दक्षिण कोरिया अपनी भाषा पढने वाले विदेशियों से भी अपने प्रति पूर्ण समर्पण चाहता है इसेमिन उसकी कम्पनियाँ भी शामिल है. मैंने बहुत पहले सुना था पता नहीं कितना सही है क्योंकि मैं तो उस वक्त भारत में भी नहीं था . मैंने सुना था कि 2005 में जेएनयू में ओडिशा के पॉस्को प्रोजेक्ट के खिलाफ जनांदोलन मंच वाले लोग एक मीटिंग में बोलने आए थे, लेकिन कोरियन सेंटर के कुछ छात्रों ने उस सभा में व्यवधान पहुँचाया कि पॉस्को स्कॉलरशिप देता है इसीलिए पॉस्को के खिलाफ वो कोई सभा नहीं होने देंगे. अगर ये बात सही है तो बिलकुल निंदनीय है .
कोरियाई भाषा पढने वाले या दक्षिण कोरिया से जुड़े लोग वहां के सेमाऊल आन्दोलन (Saemaul Movement, 새마을운동) यानि 70 के दशक में दक्षिण कोरिया में चलाये गए ग्रामीण क्षेत्रों के विकास और पुनर्निर्माण के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति और तथाकथित दक्षिण कोरिया के “विकास पुरुष” कहे जाने वाले पार्क चुंग ही के द्वारा जोरशोर से चलाये गए आन्दोलन के बारे में भलीभांति जानते ही होंगे. कहा जाता है कि इस आन्दोलन ने दक्षिण कोरिया के ग्रामीण क्षेत्रों का कायापलट कर के रख दिया और इसे विकासशील देशों के लिए एक आदर्श के रूप में जोर शोर से प्रचारित किया गया. भारत के नीति आयोग ने भी इसे एक आदर्श माना था क्या सचमुच में ऐसा था. सच्चाई यह है कि 1970 के दशक के शुरुआत से ग्रामीण क्षेत्रों में पार्क चुंग ही का जनाधार लगातार घटता जा रहा था , इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में अपने जनाधार को और गिरने और सरकार विरोधी भावना को फैलने से रोकने और पार्क चुंग ही ने दक्षिण कोरिया में अति उत्पादित(Over Produced ) सीमेंट को ठिकाने लगाने के लिए उस सीमेंट को मुफ्त में ग्रामीण क्षेत्रों में बंटवाना शुरु किया और इस तरह सेमाऊल आन्दोलन शुरू हुआ. सच्चाई यह भी है कि उस समय दक्षिण कोरिया के कोने कोने में पार्क चुंग ही सरकार की कृषि नीति के खिलाफ किसानों का आन्दोलन चल रहा था , किसान खेती छोड़ रहे थे और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय शहरी क्षेत्रों का केवल 66% ही रह गई थी. लेकिन इसकी उस समय मीडिया में रिपोर्टिंग नहीं हुई और बड़े जोर शोर से झूठा प्रचार किया गया कि गांवों के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ.
(새마을운동 덕분에 굶주림 면했다'? 턱없는 소리http://www.amn.kr/sub_read.html?uid=21617§ion=sc27
[삶과 문화] 텔레비전의 기억http://www.hankookilbo.com/v/060ac6ec49ba46eb9b0b63c9325d02ea )
दक्षिण कोरिया में रहने वाले एक बार वहां के गांवों में जा के देख लें कि वहां क्या हालात हैं. कोई युवा वहां गांवों में नहीं रहना चाहता, यहाँ तक कि कोरियाई महिलाएं भी गाँव के पुरुषों से शादी तक नहीं करना चाहतीं. जिस देश में ही गांवों का ऐसा बंटाधार हुआ पड़ा हो , उस देश की ग्रामीण विकास की नीति का दूसरे देशों के लिए आदर्श कहना ही बहुत बड़ा छलावा है. दक्षिण कोरिया की पिछली सरकार ने सेमाऊल आन्दोलन की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग करनी चाही , लेकिन पिछले साल जून में संयुक्त राष्ट्र के 66वें गैर सरकारी संस्थानों(NGOs) सम्मलेन के घोषणापत्र में में दक्षिण कोरिया द्वारा सेमाऊल आन्दोलन को सम्मिलित किये जाने के प्रयास का दक्षिण कोरियाई और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय एनजीओ के द्वारा इसका पुरजोर विरोध किया गया और यह कहा गया कि यह आन्दोलन केवल एक देश विशेष का मामला था और यह सैनिक तानाशाही सरकार द्वारा चलाया गया विकास कार्यक्रम था , अतः इसे घोषणापत्र में शामिल नहीं किया जा सकता ('새마을운동'을 유엔 NGO컨퍼런스 선언문에 넣으려던 경북도의 시도가 좌절되다 http://www.huffingtonpost.kr/2016/06/02/story_n_10258758.html ) और तो और दक्षिण कोरिया कि वर्तमान सरकार ने यह कहा पिछली सरकार द्वारा शुरू किये गए सेमाऊल आन्दोलन के वैश्वीकरण के कार्यक्रम को चरणबद्ध तरीके से बंद कर देगी और दक्षिण कोरिया द्वारा चलाए जा रहे विकासशील देशों के विकास सहायता कार्यक्रम में सेमाऊल आन्दोलन के वैश्वीकरण से जुड़े तत्वों को हटा दिया जाएगा. (박근혜 정부의 '새마을 운동 세계화' 폐기된다 http://www.huffingtonpost.kr/2017/06/04/story_n_16950496.html).
क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि एक उच्चतम मानव विकास वाला देश (187 देशों में 18वां) मध्यम श्रेणी वाले देश (187 देशों में 132 वां) से वहां के लोगों कि खुशी का राज जानना चाह रहा है. मैं दक्षिण कोरिया और भूटान की बात कर रहा हूँ. दक्षिण कोरिया के आर्थिक विकास को अपना मॉडल समझने वाले ध्यान देंगे. यह सही है कि कई विकसित पश्चिमी देशों के लोग खुश नहीं है , लेकिन वहां यह समस्या राष्ट्रव्यापी नहीं है और दक्षिण कोरिया में तो इतने उच्च आर्थिक विकास के बावजूद लोग नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं बड़े तो बड़े दक्षिण कोरियाई बच्चों का भी वही हाल है , और इसने राष्ट्रव्यापी समस्या का रूप ले लिया है और वहां के वर्तमान राष्ट्रपति मून जे इन ने भूटान से प्रेरणा लेकर लोगों के लिए खुश रहने के मानक बनाने का निर्देश दिया है ([단독]우리도 부탄처럼 국민행복지수 만든다... 문 대통령 지시 http://news.joins.com/article/21614889) लेकिन क्या यह घनघोर मानव शोषण पर टिकी दक्षिण कोरियाई व्यवस्था में संभव है ? भूटान के लोगों जैसी खुशी पाने के लिए सामाजिक कल्याण का बजट बढ़ाना होगा और घोर प्रतिक्रियावादी दक्षिण कोरियाई समाज में अगर लोक कल्याण की बात ही की जाये तो उसे कम्युनिस्ट यानि दक्षिण कोरिया का दुश्मन समझा जाता है और समझा गया है. कहने को वर्तमान राष्ट्रपति ने हाल में दक्षिण कोरिया की न्यूनतम मजदूरी दर में 16.4% की बढ़ोतरी की है और यह पिछले 12 सालों में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी है, लेकिन इससे क्या हो जायेगा , दक्षिण कोरिया में समाज कल्याण की इतनी दयनीय स्थिति है कि वहां GDP का केवल 10% ही खर्च होता है जो OECD(दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों का संगठन) के औसत 21% का भी आधा है (https://www.oecd.org/korea/sag2016-korea.pdf) , और ऐसे देश में अपनी मजदूरी से ही इलाज (दक्षिण कोरिया के सभी नागरिकों के राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा के योजना के तहत , अमेरिका जैसे देशों की तुलना में इलाज का खर्च जरुर कम पड़ता है , लेकिन मुफ्त तो बिलकुल भी नहीं है ) और पढ़ाई का खर्च उठाना पड़ता है, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का फायदा तब होता जब दक्षिण कोरिया में मुफ्त पढ़ाई और दवाई की व्यवस्था रहती, और दक्षिण कोरिया की बढ़ाई गई न्यूनतम मजदूरी भी फ्रांस, जर्मनी ,नीदरलैंड ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों जहाँ समाज कल्याण की व्यवस्था इतनी मजबूत है , से भी कम है. इसके अलावा दक्षिण कोरिया में न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी पर गुजर बसर करने वाले मजदूरों की संख्या में भी OECD में पहले नंबर पर है. दक्षिण कोरिया में 7 में से 1 मजदूर न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी पर गुजर बसर करने को विवश है जो OECD के सदस्य देशों के औसत 5.5% का 2.7 गुना है (한국인이 '매우 심각한 노동환경'에 처했음을 보여주는 OECD 통계 8가지http://www.huffingtonpost.kr/2015/12/22/story_n_8859092.html ). लीजिये कईयों के लिए “विकसित” और “आदर्श” दक्षिण कोरिया में सभी को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल रही. और तो और वर्तमान दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति ने यह भी कहा है कि कामगारों को बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी देने में छोटे व्यवसायियों को जो भी नुकसान होगा सरकार उसकी आधी भरपाई करेगी , लेकिन यह कैसे होगा इसका कोई मानदंड तय नहीं है. (정부가 시행하려는 '최저임금 인상분 지원' 정책이 풀어야 할 3가지 난제http://www.huffingtonpost.kr/2017/07/17/story_n_17507888.html). इसके अलावा दक्षिण कोरिया में कई कंपनियां इस बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी की काट भी निकालनी शुरू कर दी है. खबर है कि वहां कंपनियां न्यूनतम मजदूरी बढ़ने के नाम पर कामगारों को अलग से दिए जाने वाले भत्तों(Allowances) को मूल वेतन (Basic Salary) में शामिल करने , उनको दिए जाने वाले बोनस में कटौती या मूल वेतन बढाकर बोनस को घटाने जैसी हरकतें शुरू कर दी हैं (최저임금 인상에 '상여금 삭감' 등으로 응대한 회사들http://www.ohmynews.com/NWS_Web/View/at_pg.aspx?CNTN_CD=A0002351393 ). और ये मून जे इन ऐसी कंपनियों का कुछ नहीं उखाड़ सकता .
भूटान की तरह खुश रहना है तो उपभोक्तावादी दक्षिण कोरियाई संस्कृति पर लगाम लगानी होगी , पर क्या यह उपभोग पर टिकी दक्षिण कोरियाई अर्थव्यवस्था में संभव है? दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था की हालत एक साइकिल की तरह है , जिसका संतुलन उसकी गति बनाए रहने पर निर्भर है , जब उपभोग की गति मंद पड़ जाती है तो अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाता है और उसके धराशायी होने की संभावना तेज हो जाती है. दक्षिण कोरिया में न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण कई सालों से गिरावट का सामना कर रहे घरेलू उपभोग को बढ़ाने के लिए ही है.
वर्तमान दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन ने वहां के बहुत अमीर लोगों और कॉर्पोरेट क्षेत्रों पर टैक्स बढ़ाने कि घोषणा की है और कहा है कि इससे प्राप्त धन का इस्तेमाल रोजगार सृजन, आय का पुनर्वितरण और कम जन्म दर से निबटने में किया जाएगा, अच्छी बात है , अब यही देखना है कि इसका सचमुच कोई नतीजा आता है कि नहीं, हालाँकि इसपर संदेह भी उठने लग गए हैं कि बढे हुए टैक्स से प्राप्त धन इन सामाजिक योजनाओं के लिए पर्याप्त होगा कि नहीं (Super-rich, top companies face heavier taxes http://www.koreatimes.co.kr/www/biz... ). इसके अलावा दक्षिण कोरिया कि प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने इस कानून का पुरजोर विरोध या इसपर संदेह जताना शुरू कर दिया है, देखते हैं ये कानून आने वाले 2 सितम्बर (2017)को दक्षिण कोरियाई संसद से पास होता भी है कि नहीं क्योंकि राष्ट्रपति मून जे इन की पार्टी के पास संसद में बहुमत ही नहीं है (문재인 대통령의 부자증세', 정기국회 문턱 넘을까 http://news.hankyung.com/article/20...) और अगर इस कानून पर केवल संदेह जताने वाली विपक्षी पार्टी के सांसदों को मिलाकर यह कानून संसद से पास भी करा लिया जाता है तो यह देखना होगा की यह कानून असल में कितना प्रभावशाली रहता है. वैसे इसके पहले इसी मून जे इन ने दक्षिण कोरिया के सबसे बड़े हवाई अड्डे के 10,000 यानि कुल कार्यबल के 85% अस्थाई कामगारों को स्थाई करने का निर्देश दिया था , लेकिन असल में इसका पालन करना अत्यंत कठिन और जटिल है, और तो और हवाई अड्डे के प्रबंधन ने कामगारों को स्थायी करने के मामले में उनकी मजदूर यूनियन को बहिष्कृत करना भी शुरू भी कर दिया है. बहरहाल इस मामले में मैं यहाँ विस्तार से उतना नहीं लिख सकता हूँ. संबंधित समाचार का लिंक (कोरियाई भाषा में) देता हूँ ([취재파일] '1만 비정규직 정규직 전환' 인천공항 앞에 가로놓인 것들http://news.sbs.co.kr/news/endPage.do?news_id=N1004211606 ). मून जे इन के लिए अच्छा यही होगा कि वह खुद हवाई अड्डे के कामगारों को स्थायी करने के मामले में खुद सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करे, नहीं तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा. इसके अलावा उसकी सारे सरकारी संविदाकर्मियों (Contract Workers) को स्थायी करने की योजना है , लेकिन इसमें भी सभी संविदाकर्मियों को उसका लाभ नहीं मिल पाएगा.
अंत में मैंने अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए भी दक्षिण कोरियाई अंधराष्ट्रवादियों से कभी कोई संबंध भी नहीं रखा और न कभी रखूँगा. दक्षिण कोरिया की ऐसे आलोचना करने से मेरा ही बहुत नुकसान है और यह प्रत्यक्ष रूप से मेरे कैरियर से जुड़ा भी हुआ है, रोजगार बाज़ार (Job Market) में मेरी कीमत एक कोरियाई भाषा के विशेषज्ञ के रूप में है और कोरियाई भाषा की मेरी दक्षता ही मुझे ज्यादा वेतन और मेरे कैरियर को एक नई ऊंचाई दे सकती है , जो लोग मुझे अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पता ही है कि मेरी कोरियाई भाषा में कैसी दक्षता है. कोरियाई भाषा पढ़ने वाले कई लोग स्कालरशिप और उनमें से कुछ लोग अपने खर्चे पर भी दक्षिण कोरिया गए और गिने चुने लोग ही वापस भारत आये , ज्यादातर लोग दक्षिण कोरिया में ही नौकरी लेकर सेटल हो गए(उन्हें मैं यह नहीं कह रहा कि क्यों सेटल हो गए, उनकी मर्जी है ). भारत वापस आने वालों में मैं भी था , जबकि 2006 में भारत आने के पहले मेरे कोरियाई प्रोफेसर ने मुझे फुल स्कालरशिप के साथ (मैं बिना स्कालरशिप के ही था ) पढ़ाई ख़तम करने पर आकर्षक नौकरी दिलवाने की पेशकश भी की थी, और इसके अलावा दक्षिण कोरिया की नागरिकता या वहाँ का स्थायी निवास परमिट लेने का भी सुझाव दिया गया था , जो कि मेरे लिए कोई खास मुश्किल भी नहीं होता , लेकिन मैंने साफ मना कर दिया और भारत वापस आ गया . भारत में जॉब इंटरव्यू के समय इंटरव्यू लेने वालों को आश्चर्य होता था कि मैं दक्षिण कोरिया से वापस भारत कम पैकेज वाली नौकरी करने क्यों चला आया, ज्यादा चिकनी चुपड़ी बातें ना करते हुए मैं कहता था कि मुझे भारत में ही नौकरी करनी थी . दक्षिण कोरिया में मुझे सेटल होने में वहां के माहौल ,भाषा और खान पान जैसी कोई दिक्कत भी नहीं होती, और मेरे घरवालों को भी मेरे दक्षिण कोरिया में काम करने से कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन मैंने दक्षिण कोरिया के नकली चमकीले आवरण को पहचान लिया था और वहां की व्यवस्था से घिन्न और नफरत सी हो गयी थी. दक्षिण कोरिया जैसे “नरक” में मेरा दम वहां घुट जाता . मुझे दक्षिण कोरिया से वापस आने के फैसले पर अभी भी कोई अफसोस नहीं होता है . एक बात यह भी बता दूं कि मैं शुरू से ही दक्षिण कोरिया सेटल होने के इरादे से नहीं गया था और मैंने घरवालों को पहले ही बता रखा था कि मैं पढ़ाई पूरी करके वापस चला आऊंगा. दक्षिण कोरिया को जानने की एक ही कसर बाकी थी और वो थी अब तक सुनते आ रहे दक्षिण कोरियाई कंपनियों की कार्य संस्कृति , जो मार्च 2011 में बैंगलोर स्थित दक्षिण कोरियाई सैमसंग में योगदान (Join) करने से लेकर मार्च 2015 को छोड़ने की इन 4 सालों में पूरी हो गई. सैमसंग में मेरा अनुभव कैसा रहा और मेरे साथ क्या हुआ इस पर भी मैं विस्तार से कभी लिखूंगा, बहुत जरुरी है लिखना , ताकि लोगों को पता तो चले कि सैमसंग के बाहरी चमचमाते आवरण के पीछे कितना घनघोर अँधेरा है और जिस सैमसंग के मोबाइल फ़ोन को लोग बड़ी शान से इस्तेमाल करते हैं , उसमें कितने ही युवा कामगारों का खून सना हुआ है . अभी इतना ही बता सकता हूँ कि सैमसंग में काम करने का फैसला करना मेरी अब तक की जिंदगी का सबसे बड़ी गलती थी, और इसका मुझे अभी भी गहरा अफसोस है .मुझे सैमसंग की कार्य संस्कृति के बारे में वहां नौकरी करने से पहले ही पता था , लेकिन मैं इस झांसे में आ गया कि सैमसंग दक्षिण कोरिया की तरह भारत में वैसी हरकत नहीं कर सकता , मैं बहुत गलत था, पता नहीं मैं कैसे 4 साल सैमसंग जैसे घनघोर नरक में टिक गया. शायद मुझे स्टॉकहोम सिंड्रोम(Stockholm syndrome) जैसा कुछ हो गया था , जिसमें व्यक्ति को अपने अपहरणकर्ता से ही लगाव और उसपर भरोसा हो जाता है और सैमसंग मेरी निजी जिंदगी, मेरे लिए खुद के समय और मेरी मानसिक शांति का अपहरणकर्ता ही तो था. सैमसंग छोड़ने के बाद मैंने फैसला कर लिया कि अपनी जिंदगी में कभी किसी दक्षिण कोरियाई कंपनी में काम नहीं करूँगा , चाहे मुझे घास खाने या भूखे मरने पर ही क्यों मजबूर होना पड़े. मुझे इन 2 सालों में दक्षिण कोरियाई कंपनियों से भारत और विदेशों तक भी आकर्षक पैकेज वाले ऑफर आये , सबको मैंने ठुकरा दिया . मुझे पता है कि मेरे पास कोरियाई भाषा ही वह तुरुप का इक्का है , जिससे मैं फिर से सफलता की सीढियाँ चढ़ सकता हूँ और आगे आने वाले दिनों में भी मुझे कोरियाई भाषा से संबंधित काम ही करना होगा , लेकिन नौकरी या काम करने के लिए दक्षिण कोरिया का स्तुति गान या चरण वंदना न करने वाली बात पर हमेशा कायम रहूँगा. अगर मेरे पेशेवर रवैये से मतलब है तो दक्षिण कोरिया से संबंधित काम दें नहीं तो दक्षिण कोरिया से संबंधित अपने कैरियर को मैं अपने जूते की नोक पर रखने की बात मैं ऊपर बता ही चुका हूँ ही. आज तक ऐसी नौबत तो नहीं आई कि नौकरी लेने या काम करने के लिए मुझे किसी दक्षिण कोरियाई के सामने उनके देश का स्तुति गान गाना पड़ा. सैमसंग के एचआर(HR) ने अंतिम समय में मुझपर यह आरोप भी लगाया था कि मैंने दक्षिण कोरिया के बारे में नकारात्मक बोला है , इसीलिए मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए. शर्म भी नहीं आती उन्हें दक्षिण कोरिया के लिए ऐसी चाटुकारिता करते हुए. मैं अमेरिकी व्यवस्था का भी बहुत बड़ा विरोधी हूँ और अमेरिकी कंपनी में भी काम कर चुका हूँ और काम के दौरान भी अमेरिका की खूब आलोचना करता था , लेकिन उस कंपनी के मेनेजर और एचआर ने तो कभी नहीं कहा कि मैं अमेरिका के खिलाफ बोलता हूँ तो मुझे चले जाना चाहिए.अमेरिकी , यूरोपीय यहाँ तक की जापानी कंपनियों को केवल काम के प्रति आपके पेशेवर रवैये से मतलब रहता है न की इस बात से की आप उनके देश के बारे में कैसा सोचते हैं. दक्षिण कोरियाई कंपनियों में न सिर्फ आपका भयंकर शोषण होता है , बल्कि आप की अपनी व्यापक सोच का दायरा भी काफी संकुचित हो जाता है. मैंने 2 बार सिर्फ अपनी तस्सली के लिए जेएनयू के कोरियाई विभाग में शिक्षक के पद के लिए आवेदन डाला , मैं जानता था कि मैं तकनीकी रूप से अयोग्य हूँ , लेकिन यह पता नहीं था कि मैं इंटरव्यू तक के लिए भी शार्टलिस्ट नहीं हो सकता, मुझे इंटरव्यू का सामना करने कि दिली इच्छा थी. खैर मैं जब तकनीकी रूप से जेएनयू के अलावा दूसरे कोरियाई भाषा के कोर्स वाले विश्वविद्यालयों में इंटरव्यू तक के लिए भी अयोग्य ही हूँ तो इसपर बात करने का कोई मतलब भी नहीं रह जाता. जहाँ तक प्राइवेट संस्थानों में कोरियाई पढ़ाये जाने कि बात है तो इसके लिए मुझे दक्षिण कोरिया के लिए चमकदार मार्केटिंग करनी पड़ेगी , दक्षिण कोरिया का झूठा स्तुति गान गाना पड़ेगा और ऐसा करने पर मेरा जमीर मुझे बहुत धिक्कारेगा . मैं किसी दक्षिण कोरिया से अनजान व्यक्ति के उस देश के बारे में पूछने पर पहली बार में अच्छी बातें बताऊंगा , लेकिन विस्तार में जाने पर दक्षिण कोरिया की तथ्य आधारित आलोचना होगी और मैं आज तक ऐसा ही करता आया हूँ .
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि दक्षिण कोरियाई का समाज अपने वर्तमान स्वरुप में अभी भी निहायत असामान्य और विकृत सोच वाला ही है. ऊँची ऊँची इमारतें, अपार्टमेंट्स, रात में नियोन लाइट्स की चकाचौंध, और तथाकथित “हाई टेक” का तमगा पाए हुए दक्षिण कोरिया के घनघोर अँधेरे पक्ष का लोगों को पता नहीं चल पाता. ये बात सच है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की एकनिष्ठ सेवा ने दक्षिण कोरिया को बहुत अमीर बना दिया और बीते हुए कल कि तुलना में दक्षिण कोरिया में सम्पनता के दर्शन होते हैं, ये भीं सच है कि दक्षिण कोरिया में पूर्ण गरीबी(Absolute Poverty) के दर्शन नहीं होते , लेकिन वहां सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty) बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है और वहां के 10% उच्च वर्ग के लोगों के पास कुल सम्पति का 66% हिस्सा है , वहीँ निचले तबके के 50% लोगों के पास कुल सम्पति का 2% हिस्सा ही है, (우리나라 상위 10%가 富 66% 보유…하위 50% 자산은 2% 불과http://www.yonhapnews.co.kr/bulletin/2015/10/28/0200000000AKR20151028218700002.HTML )ये केवल दक्षिण कोरिया कि ही समस्या नहीं है, लेकिन अगर हम अन्य विकसित पूंजीवादी देशों के सामाजिक कल्याण व्यवस्था से दक्षिण कोरिया कि तुलना करें तो दक्षिण कोरिया में स्थिति भयावह हो जाती है. ये उम्मीद करनी बेमानी है कि दक्षिण कोरिया में तथाकथित वर्तमान “उदारवादी” सरकार के आने से इसमें कोई सुधार होगा. दक्षिण कोरिया का समाज आत्महत्या, कामकाजी घंटे, निम्न जन्म दर, औद्योगिक दुर्घटनाओं में विश्व चैंपियन है. दक्षिण कोरिया में पिछले साल 20 लाख लोगों के मोमबत्ती जुलुस में कई मुद्दे थे , लेकिन ये मोमबत्ती जुलुस केवल पूर्ववर्ती महाभ्रष्ट राष्ट्रपति पार्क कुन हे को पद से बेदखल करने और मून जे इन जैसे उदारवादी दक्षिणपंथी नेता को राष्ट्रपति चुनाव में जिताने तक ही सीमित रह गया. मून से जो उम्मीदें की गईं थी वो अब एक एक करके धराशाई हो रही हैं. कहने को मून जे इन की लोकप्रियता अभी भी बरकरार है और दक्षिण कोरिया के 80% से ज्यादा लोग घरेलू मोर्चों पर इसकी कुछ लोकप्रिय घोषणाओं से ही इसका समर्थन कर रहे हैं (문재인 대통령 취임 100일, 80% 육박하는 지지율 고공행진의 이유 http://www.huffingtonpost.kr/2017/0...) . देखते हैं कि ये अपनी इन घोषणाओं को सच में जमीन पर उतार पाता है की नहीं , क्योंकि भारत की तुलना में “ईमानदार” समझे जाने वाले दक्षिण कोरिया में भी कई घोषणाएँ केवल हवा हवाई या जुमला बन कर रह जाती हैं. और इन सर्वे का क्या इसनें तो मोदी सरकार को भी दुनिया में दूसरा सबसे विश्वसनीय बना दिया है. जिस दिन अमेरिकी साम्राज्यवाद ने मून जे इन को अपना परम वफादार मानने से इंकार कर दिया तो इसका किस्सा ही ख़तम है. अमेरिकी साम्राज्यवाद की गोद में बैठ के ये मून कितनी जनपक्षीय नीति(Pro People Policy) अपनाएगा.
शीतयुद्ध के ज़माने का राष्ट्रीय सुरक्षा कानून दक्षिण कोरिया पर निहायत ही बड़ा कलंक है , इसी ने दक्षिण कोरियाई समाज की मानसिकता को और भी विकृत कर दिया है. इसी के चलते दक्षिण कोरिया उदार लोकतंत्र के नाम पर एक बहुत बड़ा कलंक है , वो तो दक्षिण कोरिया को लोकतंत्र के स्वयंभू पुजारी अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त है , इसीलिए उसे कुछ नहीं होता. दक्षिण कोरिया में इसी कानून के चलते तर्क वितर्क की परंपरा नहीं विकसित हो पाई है. एक वास्तविक उदार लोकतंत्र में किसी भी विचारधारा को तर्क वितर्क की कसौटी पर परखा जाता है लेकिन दक्षिण कोरिया जैसे देश में पैदा होते ही यह ब्रेनवाश कर दिया जाता है कि दक्षिण कोरिया में पूंजीवाद ही एकमात्र विचारधारा है, दक्षिण कोरिया जब अपने आप को उदार लोकतंत्र कहता ही है तो लोगों कम से कम लोगों को यह तय करने दे की लोगों को कैसी विचारधारा पसंद है , लोगों को विभिन्न विचारधाराओ पर बहस करने दे. हमने ऊपर ही कुछ घटनाओं के उदाहरण से देखा है कि किस तरह दक्षिण कोरिया विचारधारा के नाम पर दमन करता है. दक्षिण कोरिया के लोग भी इस दमनकारी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के बिल्कुल खिलाफ हैं. लेकिन आज तक किसी भी उदारवादी लोकतंत्र के पैरोकार राष्ट्रपतियों को इस कानून को छेड़ने का साहस नहीं हुआ . चाहे वो किम दे जुंग हो, रोह मू ह्यून हो और अब ये मून जे इन हो. उत्तर कोरिया को लोकतंत्र का उपदेश देने वाले दक्षिण कोरिया को खुद अपने यहाँ ही इस राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को ख़तम कर, पूरी तरह से विचारधारा, अंतःकरण और अकादमिक स्वंतंत्रता प्रदान करनी होगी. दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 12वीं सैन्य शक्ति और ऊपर से अमेरिका जैसे महाशक्ति का सर पर हाथ , आखिर ऐसे दक्षिण कोरिया को डर किस बात का लगता है? क्या दक्षिण कोरिया के लोग विचार की स्वतंत्रता दिए जाने के बाद ये जान जायेंगे कि दक्षिण कोरिया की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था ही उनके तकलीफों का कारण है ?
रही बात नस्लवाद की तो कहा जा सकता है कि दक्षिण कोरिया के समाज में व्याप्त नस्लवाद को दूर कर विभिन्न संस्कृतियों को अपनाने के लिए बहुत लम्बा सफ़र तय करना होगा और इसमें आधे अधूरे मन से की गयी कवायद नहीं चलेगी. अगर दक्षिण कोरिया अपने आप को लोकतंत्र कहता है तो उसका यह शुद्ध रक्त वाला एकल संस्कृतिवाद (Monoculturalism) नहीं चलेगा. केवल ढेर सारे विदेशियों को अपने यहाँ बुला लेने से ही कोई समाज बहुसांस्कृतिक नहीं हो जाता है जो कि दक्षिण कोरिया जैसे दिखावटी समाज में आम है. दक्षिण कोरिया में तो सबसे पहले कोरियाई भाषा में धड़ल्ले से चले आ रहे शब्दों “ शुद्ध रक्त” (순혈) और “मिश्रित रक्त” (혼혈) को हटाना होगा और ये भाषाई परिवर्तन नस्लवाद की सोच हटाने में मददगार होगा. अमेरिका, ब्राजील, फ्रांस और चीन जैसे देशों में “ शुद्ध रक्त” जैसी अभिव्यक्ति को ही हटा दिया गया और इससे भी वहाँ के लोगों के दिमाग में नस्लवादी सोच पर कुछ लगाम लगाने में मदद मिली , लेकिन दक्षिण कोरिया में इतना भी नहीं प्रयास नहीं होता. ये सही है कि जापान के औपनिवेशिक काल में कोरिया की पहचान और संस्कृति को मिटाने का बर्बरतम प्रयास किया गया , इसीलिए भी कोरिया में नस्ल की शुद्दता वाले राष्ट्रवाद पर जोर दिया गया. अब समय बदल गया है लेकिन दक्षिण कोरिया अभी भी वैसे राष्ट्रवाद को वैसे ही चिपकाये हुए घूम रहा है जैसे की बंदरिया अपने मरे बच्चे को भी चिपकाये हुए घूमती रहती है.
इस लेख में दक्षिण कोरिया के समाज के कुछ ही घनघोर अँधेरे वाले पक्षों को स्थानाभाव और समयाभाव के कारण उजागर किया जा सका. लेकिन केवल इन्हीं पक्षों से ही दक्षिण कोरियाई समाज की उपरी चमक धमक की कलई खुल जाती है, और मैं दक्षिण कोरिया के इस दिखावटी रूप के बारे में यही कहना चाहूँगा जिसको मैंने 14 साल पहले सचमुच परिवर्तन की चाहत रखने वाले अपने दक्षिण कोरियाई मित्रों के सामने कहा था और यह मेरे दक्षिण कोरिया के 15 साल से ऊपर के अनुभव का निचोड़ भी है कि दक्षिण कोरिया अपने वर्तमान स्वरुप में एक “जंक फ़ूड” की तरह है जो अपने उपरी रंग रूप और स्वाद से जल्दी आकर्षित कर तो लेता है, लेकिन लम्बे समय तक उसका सेवन स्वास्थ्य को गंभीर रूप से बरबाद कर देता है.
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