(पुराना लेख) तनाव से शांति की ओर

 9 मार्च 2018 का लेख

उत्तर कोरिया द्वारा अपने उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल को दक्षिण कोरिया के प्योंगचांग में आयोजित शीतकालीन ओलिंपिक में भेजे जाने और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे इन से उनकी मुलाकात के बाद, जबाब में 5 मार्च 2018 को उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयांग भेजे गए दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति के विशेष प्रतिनिधिमंडल का राजकीय भोज पर वर्कर्स पार्टी ऑफ़ कोरिया के मुख्यालय में पार्टी और उत्तर कोरिया की राज्यकार्य समिति (State Affairs Commission, SAC) के अध्यक्ष किम जोंग उन ने स्वागत किया और बातचीत की. दक्षिण कोरियाई विशेष प्रतिनिधिमंडल के प्योंगयांग पहुचने के तीन घंटे के अन्दर ही अब तक चली आ रही परंपरा के विपरीत किम जोंग उन से उनकी मुलाकात हुई. अब तक की परम्परा के मुताबिक दक्षिण कोरियाई प्रतिनिधिमंडल की उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता से मुलाकात उनके दौरे के आखिरी दिन ही होती थी और  इस बार पहली दफे किसी भी दक्षिण कोरियाई प्रतिनिधिमंडल को वर्कर्स पार्टी ऑफ़ कोरिया के मुख्यालय में बुलाया गया.


उत्तर-दक्षिण कोरिया की इस वार्ता के बाद अप्रैल के आखिर में दोनों देशो के राष्ट्राध्यक्षों के बीच शिखर वार्ता के आयोजन पर सहमति बनी . जून 2000, अक्टूबर 2007 के बाद ये तीसरा मौका होगा जब उत्तर-दक्षिण कोरिया के बीच शिखर वार्ता होगी, पहली और दूसरी वार्ता उत्तर कोरिया के प्योंगयांग में आयोजित हुई थी , इस बार की शिखर वार्ता पहली बार दक्षिण कोरिया की सीमा में स्थित पीस हाउस (Peace house) में होगी. इसके अलावा दोनों देशों के बीच सैन्य तनाव दूर करने औरपरस्पर मंत्रणा के लिए  हॉटलाइन स्थापित करने, वार्ता के दौरान उत्तर कोरिया द्वारा किसी भी तरह परमाणु और मिसाइल परीक्षण न करने पर सहमति हुई. सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि उत्तर कोरिया ने अप्रैल में हो रहे अमेरिका-दक्षिण कोरिया के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास पर कोई आपति नहीं जताई और यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर उसके खिलाफ सैनिक खतरे का समाधान हो जाए और उसकी व्यवस्था (समाजवादी) की सुरक्षा की गारंटी दी जाए तो उसे परमाणु हथियार रखने की कोई जरुरत नहीं है . उत्तर कोरिया ने परमाणु हथियारों के सम्बन्ध में पहली बार ऐसा नहीं कहा है. इसकी चर्चा आगे होगी. इतना ही नहीं किम जोंग उन ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प से मिलने की इच्छा जताई जिसे ट्रम्प ने भी तुरंत स्वीकार कर लिया. अब इतिहास में पहली बार किसी  पदासीन (Sitting) अमेरिकी राष्ट्रपति की उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता की मुलाकात मई 2018 में प्रस्तावित है.           


पिछले एक दशक से अंत्यंत ही तनावपूर्ण स्थिति में रहे कोरियाई प्रायद्वीप के हालात साल 2018 की शुरुआत से शांतिपूर्ण हो चले हैं और जब उत्तर कोरिया ने अमेरिका तक मार करने में सक्षम ICBM ह्वासुंग 15 का 29 नवम्बर 2017 का सफलतापूर्वक परीक्षण कर शक्ति संतुलन स्थापित कर लिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी प्रतिरक्षा क्षमता को बहुत मजबूत कर लिया. इसी आत्मविश्वास के साथ साल 2018 के अपने नववर्ष के सन्देश में किम जोंग उन ने दक्षिण कोरिया के साथ सुलह की इच्छा जताई. 


यह  प्रचारित किया जा रहा है कि ट्रम्प की उत्तर कोरिया के प्रति अधिकतम दबाब (Maximum Pressure)की नीति के आगे उत्तर कोरिया ने सुलह करने की इच्छा जताई है और उतर कोरियाई नेतृत्व अमेरिका की मांग के सामने झुकने को तैयार है, और सबसे बड़ी बात वह अपने वि-अतामीकरण (Denuclearization) के लिए भी तैयार है. 


उत्तर कोरिया का परमाणु शस्त्रीकरण (Nuclear armament ) अमेरिका द्वारा कोरिया के बलपूर्वक विभाजन और कोरियाई युद्ध की समाप्ति के बाद उत्तर कोरिया से उसका शांति समझौता नहीं करना है. ना तो उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार के कारण कोरिया का विभाजन हुआ और न इसके चलते कोरियाई युद्ध हुआ . और तो और सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका से मिलने वाली लगातार परमाणु हमले की धमकी के कारण ही उत्तर कोरिया परमाणु हथियार बनाने को मजबूर हुआ, नहीं तो  उससे पहले उत्तर कोरिया  1985 में परमाणु अप्रसार संधि यानि NPT (Treaty on the Non-Proliferation of Nuclear Weapons) तक में शामिल हुआ था. अमेरिका पर भरोसा करके उत्तर कोरिया ने मई 1993 से अगस्त 1998 यानि 5 सालों तक किसी भी मिसाइल का परीक्षण नहीं किया. 2003 में तो उत्तर कोरिया अमेरिका द्वारा उसकी सुरक्षा की गारंटी देने पर वह अपना सारा परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम बंद करने के लिए तैयार था. जुलाई 2017 में संयुक्त राष्ट्र (UN) में परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने के लिए एक संधि बनाने का प्रस्ताव दिया गया , इस प्रस्ताव का समर्थन 122 देशों ने किया और इसमें उतर कोरिया भी शामिल था जो अकेला उन देशों में परमाणु शक्ति संपन्न देश था. 


यह बात जगजाहिर है कि अमेरिका का इतिहास विरोधी देशों में खूनी तख्तापलट का रहा है. अमेरिका पर भरोसा करना कुत्ते की हड्डी की रखवाली करने जैसा ही है , लीबिया के गद्दाफी ने अमेरिका पर भरोसा कर अपने देश का परमाणु कार्यक्रम बंद कर दिया और इसका अंजाम दुनिया ने  देखा. अगर इराक, अफगानिस्तान और सीरिया के पास परमाणु हथियार रहते तो क्या अमेरिका उन पर हमला कर पाता. जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं उनमे से सिर्फ रूस, चीन और उत्तर कोरिया को छोड़कर बाकी सारे देश अमेरिका के दुमछल्ले या उसकी जी हुजूरी करने वाले  हैं. 


एकमात्र परमाणु हथियार और मिसाइल ही उत्तर कोरिया की राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी है और एक संप्रभु देश के नाते उसे अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है. दक्षिण कोरिया द्वारा किये गए शब्दों के हेरफेर से ऐसा लग रहा है कि उत्तर कोरिया अपने वि- अतामीकरण(Denuclearization) के लिए बिलकुल राजी हो गया है. ऐसा इसीलिए कहा जा रहा है की बाद में एक बार फिर से उत्तर कोरिया को दुनिया के सामने खलनायक घोषित किया जा सके कि उसने अपना यह वादा पूरा नहीं किया. जबकि उत्तर कोरिया की सरकारी मीडिया ने वि- अतामीकरण का कोई उल्लेख ही नहीं किया है . अगर भविष्य में अमेरिका समेत बाकी परमाणु संपन्न देश ईमानदारी से  वि- अतामीकरण की तरफ कदम बढायें तो उत्तर कोरिया भी ऐसा ही करेगा.उसके पहले यह सोचना कि उत्तर कोरिया अपने सारे  परमाणु हथियारों को ठिकाने लगा देगा यह सोचना ही बहुत बड़ी बेवकूफी है.  


अमेरिका की अधिकतम दबाब की नीति और कड़े आर्थिक प्रतिबंधों के चलते उत्तर कोरिया समझौता करने को मजबूर हो गया ऐसा मान लेना भी बहुत बड़ा भ्रम है. 1990 के दशक में उत्तर कोरिया की स्थिति बहुत कमजोर थी और तथाकथित उत्तर कोरिया विशेषज्ञों द्वारा डंके की चोट पर यह बात कही जा रही थी कि वह कम से कम तीन हफ्ते से लेकर तीन महीने और ज्यादा से ज्यादा 3 साल के अन्दर टूट जायेगा, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ और अब तो उसके पास अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार भी हैं  और अमेरिका तक मार करने वाली मिसाइल भी.  उत्तर कोरिया पर लगाये गए सारे कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध भी मजाक बन कर रह गए. उत्तर कोरिया ने अपनी जरुरत के लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यस्था का लगातार विकास किया. कड़े आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद उसकी अर्थव्यवस्था ने 2016 में 3.9% की वृद्धि दर्ज की जो कि मुक्त व्यापार वाले उसके पड़ोसी दक्षिण कोरिया की 2.8% की वृद्धि दर से अधिक थी. उत्तर कोरिया अगर ट्रम्प प्रशासन द्वारा लगाये गए तथाकथित अधिकतम आर्थिक प्रतिबन्ध की बात करें तो साल 2017 के उत्तरार्ध (Second Half) और साल 2018 के जनवरी महीने तक उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध के असर को दर्शाने वाले दो संकेतक (Indicator)  चावल के मूल्य और विनिमय दर (Foreign Exchange) में काफी स्थिरता देखी गई. इसका मतलब उत्तर कोरिया पर अभी तक इन प्रतिबंधों का कोई उल्लेखनीय असर नहीं हुआ है जो उसे मजबूर करके अमेरिका के सामने झुका दे (“Maximum pressure” and the North Korean economy: what do market prices say? http://www.nkeconwatch.com/2018/03/09/maximum-pressure-and-the-north-korean-economy-what-do-market-prices-say/ ). उधर चीन और रूस भी उत्तर कोरिया पर बार बार अधिकतम दवाब की नीति के पक्ष में नहीं हैं. रुसी राष्ट्रपति पुतिन ने हाल में रूस के नए अत्याधुनिक सामरिक हथियारों (Strategic Weapons) जो की किसी भी उन्नत मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली(Missile Defense System) को भेद कर दुनिया में कहीं भी मार कर सकने में सक्षम हैं, की रुसी संसद में घोषणा करते हुए अमेरिका को यह चेतावनी भी दी कि अगर रूस के मित्र राष्ट्रों (Allies) पर उसने परमाणु हमला किया तो रूस अपने इन हथियारों से तुरंत कारवाई करेगा और उत्तर कोरिया रूस का मित्र राष्ट्र है. और  अब तो उत्तर कोरिया खुद अमेरिका को उसके घर के अन्दर घुसकर मार करने में सक्षम है ही. 


यह भी जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है की उत्तर कोरिया को बातचीत के लिए राजी करने में दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे इन की बड़ी भूमिका रही है. जिस व्यक्ति के पास राष्ट्रपति का पद होते हुए भी उसके पास अपनी देश की सेना पर नियंत्रण ही नहीं हो , जो आदमी चीन और अपनी जनता के पुरजोर विरोध करने पर अमेरिकी मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली THAAD के मसले पर अमेरिका को उसकी तैनाती न करने के लिए नहीं समझा सका हो , वो आदमी बिना अमेरिका की अनुमंति के उत्तर कोरिया के साथ बातचीत का इतना बड़ा निर्णय अकेले कैसे ले सकता है. यहाँ बताता चलूँ कि दक्षिण कोरिया की सेना का युद्धकालीन नियंत्रण(War time control)  शुरू से ही अमेरिका के हाथ में है और कई मसलों पर अमेरिका की घनघोर दखलंदाज़ी है इसी वजह से दक्षिण कोरिया को पूरी तरह से आजाद मुल्क की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. उत्तर कोरिया भेजे गए दक्षिण कोरियाई विशेष प्रतिनिधिमंडल में वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, गुप्तचर विभाग (Spy agency) के प्रमुख और अन्य  शामिल थे उनकी नियुक्ति तक कुख्यात अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए(CIA) की अनुमति से ही हुई थी. 


उत्तर कोरिया से जुड़े मसले में हमेशा दक्षिण कोरिया की भूमिका अमेरिका के दलाल की ही रही है, लेकिन यह जानते हुए भी उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया की तरफ से बातचीत की पहल का हमेशा से स्वागत ही किया है. अप्रैल 2018 में होने वाली उत्तर-दक्षिण कोरिया शिखर वार्ता का स्थान दोनों देशों की सीमा पर स्थित पानमुनजम है और जिस इमारत में बात चीत होगी वो दक्षिण कोरिया की सीमा में है और दक्षिण कोरिया की सीमा पूरी तरह अमेरिकी सेना द्वारा नियंत्रित है यानि उत्तर कोरिया का सर्वोच्च नेता पूरी तरह से दुश्मन के नियंत्रण वाली जगह में बातचीत करने वाला है , यह कोई मामूली बात नहीं है. बताते चलें की उत्तर कोरिया को इस वार्ता के लिए प्योंगयांग, सीओल और पानमुनजम इन तीन जगहों में से किसी एक जगह चुनने का प्रस्ताव था और उत्तर कोरिया ने अपने लिए खतरनाक और कोरिया के त्रासदपूर्ण विभाजन के प्रतीक पानमुनजम का चुनाव किया. 


उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता  और अमेरिका के पदासीन (Sitting) राष्ट्रपति के बीच इतिहास में पहली बार होने जा रही शिखर वार्ता स्वागत योग्य है . उत्तर कोरिया इसके पहले भी कई बार अमेरिका के साथ शिखर वार्ता , शांति समझौता, और दोनों देशों के बीच सामान्य रिश्ते के लिए कई बार आग्रह किया है और साल 2000 में उत्तर कोरिया के तत्कालीन नेता किम जोंग इल और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के बीच शिखर वार्ता वाली स्थिति बन ही गई थी. अब देखना यह है कि बड़बोला ट्रम्प किस तरह से शिखर वार्ता को आगे ले जाता है. वार्ता के पहले ही ट्रम्प ने जिस तरह से बातचीत के पक्षधर रहे विदेश मंत्री टिलरसन को हटा कर उसकी जगह CIA प्रमुख और कट्टरपंथी माइक पोम्पियो (Mike Pompeo) को विदेश मंत्री बनाना ही कई सवाल खड़े करता है. अमेरिका के लिए किसी भी देश के साथ हुए समझौते को रद्दी की टोकरी में फ़ेंक देना कोई नई बात नहीं है, इसीलिए उत्तर कोरिया-अमेरिका के बीच शिखर वार्ता होने से अपने आप शांति की स्थापना होने की उम्मीद नहीं पालना चाहिए. 1950 के दशक में कोरियाई युद्ध के दौरान युद्धविराम समझौते के दौरान अमेरिका ने उत्तर कोरिया ने हमले जारी रखे थे, और तो और उस दौरान अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर परमाणु बम गिराने की कई बार योजना भी बनाई थी. अमेरिका ने उत्तर कोरिया के कई शहरों और गांवों को पूरी तरह से जमींदोज करने , लाखों लोगों की हत्या करने के अलावा जैव युद्ध (Biological warfare) भी छेड़ा था. यही अमेरिका की असलियत है. युद्धविराम समझौते के दौरान जैसे अमेरिका ने लगातार हमले जारी रखे थे , वैसे ही उत्तर कोरिया-अमेरिका के बीच शिखर वार्ता होने के बावजूद भी उत्तर कोरिया के खिलाफ प्रतिबन्ध और सैन्य दबाब जारी रहेगा. इस शिखर वार्ता में अमेरिका अगर कोई वादा करे तो भी उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता है. 1950 के दशक में अमेरिका ने उत्तर कोरिया के साथ युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किये और समझौते में इस बात का उल्लेख था कि हस्ताक्षर के तीन महीने के अन्दर कोरियाई प्रायद्वीप से सभी विदेशी सेना चली जाएगी और दोनों पक्ष  कोरियाई प्रायद्वीप के मसले का शांतिपूर्वक हल निकलने में एक दुसरे के सहयोग करेंगे. 3 महीने तो क्या 65 साल बीत जाने के बाद भी आज भी दक्षिण कोरिया में अमेरिकी सेना तैनात है या अमेरिका ने दक्षिण कोरिया को अपने कब्जे में रखे हुए है. शीतयुद्ध (Cold War)के दौरान अमेरिका ने दक्षिण कोरिया में अपने परमाणु हथियार भेजे और युद्ध का माहौल बनाये रखा.        

 

यही नहीं उत्तर कोरिया के परमाणु मसले का हल निकलने के लिए अगस्त 2003 में शुरू हुई छः पक्षीय वार्ता (Six-Party Talks) का मुख्य उद्देश्य केवल उत्तर कोरिया नहीं बल्कि पूरे कोरियाई प्रायद्वीप का वि- अतामीकरण और उत्तर कोरिया-अमेरिका, उत्तर कोरिया-जापान के बीच सामान्य संबधों की स्थापना करना था , लेकिन अमेरिका पीछे से दक्षिण कोरिया के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास और उत्तर कोरिया की समाजवादी व्यवस्था के पतन और उसे हड़पने की नीति जैसे छः पक्षीय वार्ता के उद्देश्य से बिल्कुल उलट चीजों पर काम करना जारी रखा और इस तरह अमेरिका के इस गन्दी चालों के चलते छः पक्षीय वार्ता आखिरकार विफल हो गई .


अमेरिका की दिलचस्पी शांति उत्तर कोरिया के साथ शांति समझौता और संबंधो के सामान्यीकरण से ज्यादा उसके परमाणु निशस्त्रीकरण (Nuclear Disarmament) या उसके वि- अतामीकरण में ही है . उत्तर कोरिया के खिलाफ तमाम प्रतिबंधों को जारी रखते हुए उत्तर कोरिया- अमेरिका शिखर वार्ता ट्रम्प के गलत निर्णय और मनमाने रवैये का शिकार हो सकती है.

 

उत्तर कोरिया को भी यह बात अच्छे से मालूम है कि अमेरिका की मंशा कोरियाई प्रायद्वीप में शांति की स्थापना के बजाय उसपर दबाब बनाना है इसीलिए उत्तर कोरिया ने अमेरिका के साथ होने वाली शिखर वार्ता का प्रस्ताव रखने के पहले से ही “पूंजीवाद के प्रति फतांसी समाजवादी विचारधारा को बिगाड़ते हुए मौत की तरफ ले जाती है” कहते हुए पूंजीवाद साम्राज्यवाद विरोधी शिक्षा पर और ज्यादा जोर देना शुरू कर दिया है. 


हमने उपर कुछ उदाहरणों के जरिये देखा  कि किस तरह अमेरिका अपने वादे से मुकरता है. ट्रम्प की मंशा उत्तर कोरिया- अमेरिका शिखर वार्ता को 2018 नवम्बर में होने वाले अमेरिकी संसद के चुनाव और साल 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में भुनाने की है. इसके अलावा अमेरिका में आयातित इस्पात और एलुमिनियम पर भारी कस्टम ड्यूटी लगाकर चौतरफा आलोचना से घिरे ट्रम्प के लिए उत्तर कोरिया- अमेरिका शिखर वार्ता पर राजी होना उसके लिए ट्रम्प कार्ड या तुरुप का इक्का ही साबित हुआ और इससे पूरी दुनिया का ध्यान इस शिखर वार्ता पर चला गया. 


सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा नियंत्रित एक ध्रुवीय (Unipolar) व्यवस्था में अमेरिका के लिए नैतिक आदर्श, वफादारी, दोस्ती का कोई महत्व नहीं है और न इसके पहले भी था .अमेरिका केवल ताक़त की भाषा समझता है. हमने ऊपर देखा कि किस तरह उत्तर कोरिया परमाणु बम बनाने से बचना चाहा लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. अगर अमेरिका उत्तर कोरिया से बात चीत को राजी हुआ है तो उसका सबसे बड़ा कारण उत्तर कोरिया द्वारा अमेरिका के अन्दर घुसकर पलटवार करने की क्षमता का हासिल करना और इस तरह शक्ति संतुलन (Balance of Power)  स्थापित करना ही है क्योंकि अमेरिका अब तक अपने से कमजोर, उससे लड़ाई की इच्छा न रखने वाले और सबसे बड़ी बात अमेरिका पर पलटकर वार न कर सकने वाले देशों के खिलाफ ही युद्ध करता आया है.     

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