साम्राज्यवादी गुट को ध्वस्त करने वाला जनवादी कोरिया
अमेरिका एक ऐसा देश है जो अन्य देशों पर आक्रमण और लूटपाट के माध्यम से कायम रहा और समृद्ध हुआ है. अब तक अमेरिका सैकड़ों युद्धों में शामिल रहा है, और केवल 21वीं सदी में ही उसने 20 से अधिक युद्धों में भाग लिया है. अमेरिका ने हमेशा युद्ध इसलिए छेड़े हैं ताकि उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों की लूट कर सके, अमेरिका-समर्थक सरकारें स्थापित कर सके और संबंधित क्षेत्रों पर राजनीतिक व आर्थिक प्रभाव कायम रख सके. इसके अलावा, उसने असमान व्यापार समझौतों, आर्थिक प्रतिबंधों, और अंतरराष्ट्रीय सट्टेबाज़ पूंजी के माध्यम से भी अन्य देशों का शोषण किया है.
मूल रूप से पूँजीवाद स्वभाव से ही लालची और स्वार्थी होता है. इसलिए, अमेरिका के सत्ताधारी वर्ग के बीच भी आपसी टकराव आम बात है. यदि किसी को थोड़ी भी व्यक्तिगत लाभ की संभावना दिखती है, तो वह अपने ही जैसे दूसरे सत्ताधारी को गिराकर उससे लूटने की कोशिश करता है — यह प्रवृत्ति अमेरिका के भीतर भी समान रूप से मौजूद है.
इसका उदाहरण 1861 में हुई अमेरिकी गृहयुद्ध (Civil War) में भी देखा जा सकता है. यह कोई महान आदर्शों के लिए लड़ी गई लड़ाई नहीं थी, बल्कि दक्षिण के दास-स्वामी (भूमि-स्वामी वर्ग) और उत्तर के पूँजीपति वर्ग के बीच स्वार्थसिद्धि की लड़ाई थी. यानी, अमेरिका का शासक वर्ग हमेशा से इतना लालची और आत्मकेंद्रित रहा है कि वह अपने ही देश में युद्ध छेड़ने से भी नहीं हिचकिचाता.
आज जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है, तो सत्ताधारी वर्गों के बीच संघर्ष पहले से कहीं अधिक तीव्र हो गया है. उदाहरण के लिए, डोनाल्ड ट्रंप और इलॉन मस्क के बीच के टकराव को देखें. ट्रंप का आर्थिक आधार रियल एस्टेट और कृषि क्षेत्र है, जबकि मस्क इलेक्ट्रिक कारों के माध्यम से विश्व के सबसे अमीर व्यक्ति बना है. ट्रंप चीन के खिलाफ आर्थिक युद्ध छेड़ना चाहता है, जबकि मस्क चीन के साथ मित्रवत संबंध बनाए रखना चाहता है, क्योंकि चीन उत्पादन और बिक्री दोनों के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है. इस तरह, दोनों के आर्थिक हित अलग-अलग हैं, इसलिए यह पहले से ही स्पष्ट था कि उनका गठबंधन टूटना तय है.
इसके अलावा, ट्रंप आप्रवासन को रोकना चाहता है ताकि फोर्ड जैसी विनिर्माण कंपनियों में श्वेत अमेरिकी श्रमिकों की नौकरियाँ बचाई जा सकें. लेकिन इससे मेटा (फेसबुक), एप्पल जैसी बिग टेक कंपनियों में अफरा-तफरी मच गई, क्योंकि इन कंपनियों में चीन, भारत और इस्लामी देशों के तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी संख्या में काम करते हैं. इन देशों में गणित, भौतिकी और कंप्यूटर विज्ञान की उच्च शिक्षा और सूचना प्रौद्योगिकी का गहरा विकास हुआ है. ट्रंप के पहले कार्यकाल में, जब उसने कुछ इस्लामी देशों के नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया था, यही कारण था कि तब आईटी कंपनियों ने इसका कड़ा विरोध किया और कानूनी कार्रवाई तक की.
अमेरिका में “हॉक (युद्ध समर्थक)” और “डव (शांतिवादी)” — यानी कठोर और मध्यमपंथी गुट मौजूद हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि एक युद्ध पसंद करता है और दूसरा शांति. यह उनके-अपने आर्थिक हितों के अंतर के कारण उत्पन्न भिन्नता है. दोनों ही अपने लिए लाभदायक विदेशी नीति लागू करने के लिए संघर्ष करते हैं.
इस प्रकार, अमेरिका का सत्ताधारी वर्ग कभी भी एकजुट या सहयोगी नहीं रहा. पूँजीपति आपस में प्रतिस्पर्धा और टकराव करते हैं, लेकिन जब किसी अन्य देश को लूटने का अवसर मिलता है, तो वे अस्थायी रूप से एकजुट हो जाते हैं. वे एक साझा दुश्मन बनाते हैं, मिलकर युद्ध करते हैं, और फिर लूट का माल बाँट लेते हैं — यही अमेरिका के अस्तित्व की नींव है.
जब इराक युद्ध शुरू हुआ, तो अमेरिका ने उसे लाइव प्रसारण में एक वीडियो गेम की तरह दिखाया. टीवी, विज्ञापन बोर्डों और हर मीडिया माध्यम में अमेरिकी झंडा फहराया गया, राष्ट्रीय गान बजाया गया, और देशभक्ति का उन्माद फैलाया गया. इसी तरह अमेरिका अपने राष्ट्र को एकजुट रखता है और सामूहिक एकता को बनाए रखता है.
लेकिन एक साझा दुश्मन का सामना करने के
लिए अस्थायी या आंशिक रूप से किया गया गठबंधन बहुत नाजुक होता है. जब सब कुछ ठीक
चलता है तो माहौल अच्छा रहता है, लेकिन
जैसे ही कोई समस्या आती है, सहयोग
संबंध तुरंत टूट जाता है. वे एक-दूसरे पर ज़िम्मेदारी डालते हैं और अंदर बची हुई
लूट पर कब्जा करने के लिए आपसी संघर्ष में उलझ जाते हैं. अमेरिका भी ऐसा ही है —
जब उसका आक्रमण रुक जाता है, तो
भीतर से कलह शुरू हो जाती है, और
जब वह लूटपाट नहीं कर पाता, तो
आंतरिक संघर्ष और बढ़ जाता है. जब यह संघर्ष चरम पर पहुँचता है, तो गृहयुद्ध की चर्चा तक होने लगती है.
अगर हम दायरा थोड़ा और बढ़ाएँ, तो साम्राज्यवादी देशों के बीच भी यही
घटनाएँ देखने को मिलती हैं. सामान्य समय में वे अपने आर्थिक क्षेत्रों को बढ़ाने
की होड़ में रहते हैं और उपनिवेशों पर कब्जे के लिए झगड़ते हैं. यही कारण था कि
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध हुए.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, एक उभरते पूँजीवादी देश के रूप में
जापान ने पूर्वी एशिया में अपने कब्जे का क्षेत्र बढ़ाया और अचानक पर्ल हार्बर पर
हमला कर अमेरिका पर आक्रमण कर दिया. मूल रूप से, जापान ने एक योजना बनाई थी जिसके तहत वह
जर्मनी के साथ मिलकर सोवियत संघ पर हमला कर व्लादिवोस्तोक और साइबेरिया पर कब्जा
करना चाहता था. लेकिन जब 22 जून
1941 को जर्मनी ने सोवियत
संघ पर हमला किया, तब
जापान ने सहयोग नहीं किया. दो साल पहले हुई खालखिन गोल (Halhin Gol) की लड़ाई में सोवियत संघ से बुरी तरह
हार जाने के कारण उसने सोवियत संघ पर हमले की योजना छोड़ दी थी.
जापान की खालखिन गोल में हार के पीछे,
कोरियाई नेता कॉमरेड किम इल संग के नेतृत्व में लड़ी
जा रही जापान-विरोधी गुरिल्ला सेनाओं के पीछे से किए गए हमले भी एक कारण थे. इसके
बाद भी जापान उन गुरिल्ला सेनाओं को परास्त नहीं कर पाया और लगातार उनसे उलझा रहा,
जिसके चलते वह सोवियत संघ पर हमला नहीं कर सका और अंततः 7 दिसंबर 1941 को पर्ल हार्बर पर हवाई हमला कर दिया.
यदि जापान ने अपनी मूल योजना के अनुसार
सोवियत संघ पर जर्मनी के साथ मिलकर हमला किया होता, तो द्वितीय विश्व युद्ध का परिणाम शायद
बदल जाता. सोवियत संघ गंभीर संकट में पड़ जाता और युद्ध का नेतृत्व एकतरफा
साम्राज्यवादी देशों के हाथ में चला जाता. इस दृष्टि से देखें तो नियमित सेना नहीं,
बल्कि गुरिल्ला सेनाओं ने ही जापान के
भाग्य की दिशा बदल दी.
लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अमेरिका, यूरोप के प्रमुख देश और जापान जैसे साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ सहयोग करना शुरू कर दिया. जब सोवियत संघ मजबूत हुआ और समाजवाद का विस्तार होने लगा, तब पूँजीवाद संकट में पड़ गया — इसलिए इन देशों के बीच सहयोग और भी सघन हो गया. साम्राज्यवादी देशों के बीच आपसी संघर्ष न हो, इसके लिए अमेरिका को शीर्ष पर रखकर एक एकध्रुवीय व्यवस्था (unipolar system) बनाई गई. इसी तरह अमेरिका-केन्द्रित साम्राज्यवादी व्यवस्था का जन्म हुआ.
लेकिन यह अमेरिका-केन्द्रित साम्राज्यवादी व्यवस्था भी तब अस्थिर हो जाती है जब उसके आक्रमण और लूट की नीतियाँ इच्छानुसार सफल नहीं होतीं. उदाहरण के लिए, अगर यूक्रेन युद्ध में पश्चिमी पक्ष जीत जाता, तो कोई समस्या नहीं होती, लेकिन अब जब उनकी हार लगभग तय हो चुकी है, तो अमेरिका और यूरोप एक-दूसरे के खिलाफ भड़कने लगे हैं. अमेरिका का कहना है कि यूरोप को अपनी रक्षा व्यय बढ़ाना चाहिए, जबकि यूरोप का कहना है कि अमेरिका को लंबी दूरी के हथियारों के इस्तेमाल की अनुमति देनी चाहिए.
द्वितीय विश्व युद्ध में, जब जर्मनी की शक्ति सोवियत संघ के हाथों में चली गई थी, तो 1943 के जुलाई–अगस्त में हुई कुर्स्क की लड़ाई (Battle of Kursk) को निर्णायक मोड़ माना जाता है. दिलचस्प बात यह है कि यूक्रेन युद्ध में भी “कुर्स्क” एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया. जब यूक्रेनी सेना ने रूस के कुर्स्क क्षेत्र पर हमला किया और शुरुआती जीत हासिल की, तब अमेरिका और यूरोप को उम्मीद जगी कि युद्ध का रुख पलट सकता है. लेकिन जनवादी
कोरिया की सेना के युद्ध में प्रवेश करने के बाद कुर्स्क की लड़ाई यूक्रेन की भारी हार में समाप्त हुई. इसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि पश्चिमी पक्ष के लिए अब इस युद्ध से कोई उम्मीद नहीं बची. परिणामस्वरूप, अमेरिका और यूरोप ने एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालनी शुरू कर दी और आपसी कलह बढ़ गई.
अमेरिका के भीतर बढ़ती कलह और संभावित गृहयुद्ध की चर्चा भी जनवादी
कोरिया के कारण है. चाहे डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार रही हो या रिपब्लिकन की, दोनों ने जनवादी
कोरिया को कमजोर करने या समाप्त करने की अनेक नीतियाँ अपनाईं, लेकिन कोई भी सफल नहीं हुई. अब स्थिति ऐसी है कि अमेरिका को जनवादी
कोरिया की परमाणु शक्ति को स्वीकार करना पड़ रहा है. जनवादी
कोरिया की अमेरिका-विरोधी कठोर नीति की सफलता देखकर, रूस, चीन और कई अन्य देश भी उसी राह पर चलने लगे हैं.
जैसे-जैसे अमेरिका की आक्रमण और लूट की नीतियाँ विफल होती जा रही हैं, अमेरिका के भीतर जिम्मेदारी ठहराने, भ्रम और संघर्ष की स्थिति गहराती जा रही है.भविष्य में अमेरिका की आंतरिक अस्थिरता और विभाजन और भी बढ़ेंगे.

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