(पुराना लेख) ICBM ह्वासुंग -15 का सफल परीक्षण


 30 नवंबर 2017 का लेख

उत्तर कोरिया ने 28 नवम्बर को तड़के 3 बजे (स्थानीय समयानुसार) अपनी एक और उन्नत अंतर्महादेशीय मिसाइल(ICBM)  ह्वासुंग -15 का सफल परीक्षण किया. यह बताया जा रहा है कि  ह्वासुंग- 15 परमाणु  हथियारों के साथ 13,000 से अधिक किलोमीटर तक मार करने में सक्षम है , यानि इसकी जद में अमेरिका के सारे शहर आते हैं. इसी के साथ उत्तर कोरिया अमेरिका विरोधी देशों में रूस और चीन के बाद ऐसा तीसरा देश हो गया है जिसने अमेरिका को उसके घर के अंदर घुस कर मारने की क्षमता हासिल कर ली है. 



उत्तर कोरिया का मिसाइल कार्यक्रम एक संप्रभु देश के अधिकार क्षेत्र में आता है और इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है. ये अमेरिका और उसके दुमछल्ले ही हैं जो विश्व जनमत को यह कहकर बरगलाते रहते हैं की उत्तर कोरिया का मिसाइल कार्यक्रम पुरी दुनिया के लिए खतरा है जबकि उत्तर कोरिया ने कई बार स्पष्ट किया है कि उसका मिसाइल कार्यक्रम सिर्फ अमेरिका के हमले से उसकी रक्षा के लिए है. सबको मालूम है कि अमेरिका को विश्व शांति की कितनी फ़िक्र है. वही अमेरिका जो अपनी स्थापना की कुछ सालों के बाद से ही यानि 1798 से लेकर 2017 तक के इन 219 वर्षों में 200 से भी अधिक छोटे बड़े युद्ध करवाया हो या उसमें शामिल रहा हो, और जिसके सैनिक 150 से भी अधिक देशों में तैनात हों. विश्व शांति अमेरिका के विशालकाय हथियार उद्योग के लिए मौत का फरमान है. नाम के लिए भले ही अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाता हो लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति की भूमिका दुनिया में अशांति फैलाने , युद्ध करवाने  और अमेरिकी हथियार उद्योग के लिए पूरी दुनिया में दल्लागिरी करने की ही रही है. विश्व में अशांति रहेगी तभी अमेरिका के हथियार बिकेंगे. कोरियाई प्रायद्वीप भी उनमे से एक है. 1953 में कोरियाई युद्ध का युद्धविराम लागू हुआ लेकिन युद्ध पूरी तरह से खत्म करने के लिए इन 64 वर्षों में कोई शांति समझौता नहीं हुआ. इसीलिए कोरियाई युद्ध आज भी तकनीकी तौर पर चालू है उत्तर कोरिया ने कई बार अमेरिका से शांति समझौते के लिए कहा लेकिन अमन का कट्टर दुश्मन अमेरिका इसके लिए राजी नहीं हुआ. क्योंकि शांति समझौते के बाद अमेरिका का दक्षिण कोरिया में अपनी सेना रखने और इस तरह से दक्षिण कोरिया पर अपना कब्जा करने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा. अमेरिका उत्तर कोरिया पर कब्जा करना चाहता है ताकि रूस और चीन की सीमा पर सीधी पहुँच बनाकर उसे घेर सके.. ये अमेरिका ही है जिसने उत्तर कोरिया को परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम चलाने पर मजबूर किया. 


1956 से शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए सोवियत संघ की सहायता से उत्तर कोरिया का परमाणु विकास कार्यक्रम शुरू हुआ. यहाँ सनद रहे कि अमेरिका ने दक्षिण कोरिया में 1950 के दशक से 1991 तक परमाणु हथियार रखे थे. अस्सी के दशक में 1985 में उत्तर कोरिया परमाणु अप्रसार संधि (NPT) में शामिल हो गया. NPT साफ़ तौर पर यह कहता है कि परमाणु हथियारों से लैस देश ,परमाणु हथियार नहीं रखने वाले देशों को परमाणु हमलों को धमकी या खतरे में नहीं डाल सकते. इसीलिए उत्तर कोरिया NPT में शामिल हो गया कि इसमें शामिल होने से वह अमेरिका की परमाणु धमकियों से छुटकारा पा सकेगा. लेकिन 1989 में पूर्वी यूरोपीय देशों में समाजवाद के पराभव और दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व राजनीति की भू रणनीतिक परिस्थितियाँ(Geo Political Strategy) काफी बदल गईं. उत्तर कोरिया के उपर सोवियत परमाणु छतरी हट गई. और तो और 1993 में अमेरिका के रणनीतिक(Stratagic) कमांड ने यह घोषणा की कि वह सोवियत संघ के लिए तैनात कुछ रणनीतिक परमाणु हथियारों को उत्तर कोरिया की ओर तैनात कर रहा है. इस घोषणा के एक महीने के बाद उत्तर कोरिया ने यह कहा की वह NPT से अलग हो जायेगा. उसके पहले 1987 में उत्तर कोरिया ने योंगब्योन(Yongbyon) नामक स्थान पर 30 मेगावाट का परमाणु रिएक्टर बनाना शुरू किया. इसके पीछे उसका उद्देश्य कोयले और आयातित तेल पर अपनी ऊर्जा निर्भरता कम करना था. उस समय अमेरिका के दुमछल्ले दक्षिण कोरिया और जापान भी अपनी ऊर्जा निर्भरता के लिए परमाणु रिएक्टर बना रहे थे. सोवियत संघ के पतन के बाद उत्तर कोरिया की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुई और इसके उपर से उर्जा संकट और अमेरिका के परमाणु हमले की धमकियों से स्थिति और भी बिगड़ गई. मई 1993 में उत्तर कोरिया ने मध्यम दूरी की मिसाइल नोदोंग -1का परीक्षण किया. बाद में   अक्टूबर 1994 में उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच यह समझौता हुआ कि उत्तर कोरिया NPT में फिर से शामिल होगा और योंगब्योन के अपने परमाणु रिएक्टर को बंद कर देगा और इसके बदले अमेरिका उत्तर कोरिया की ऊर्जा जरूरतों के लिए दो लाइट वाटर रिएक्टर देगा और यह समझौता यह भी कहता था कि उत्तर कोरिया और अमेरिका पूर्ण राजनयिक संबध स्थापित करेंगे और अमेरिका ने वादा किया किया की वह उत्तर कोरिया को धमकी या परमाणु हथियारों का निशाना नहीं बनाएगा. और  उत्तर कोरिया ने अगस्त 1998 तक किसी भी मिसाइल का परीक्षण नहीं किया   .


लेकिन जून 1998 में अमेरिका ने उत्तर कोरिया के खिलाफ लंबी दूरी के परमाणु हमले के लिए सैनिक अभ्यास शुरू कर दिया और उसी साल अक्टूबर में अमेरिकी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल ने खुले रूप से कहा कि अमेरिका की योजना उत्तर में सत्ता परिवर्तन की है. साम्राज्यवादी अमेरिका की दिलचस्पी सिर्फ और सिर्फ अपने विरोधी देशों को अस्थिर करने और वहां अपने गुलाम या चमचे बिठाने की रही है.   


2001 में जॉर्ज बुश के अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद उसने अमेरिका के उत्तर कोरिया के साथ हुए अक्टूबर 1994 के समझौते को रद्द कर दिया. जनवरी 2002 ने अमेरिका के उसी निर्वाचित राष्ट्रपति रूपी आतंकवादी जॉर्ज बुश ने उत्तर कोरिया, ईरान, इराक को “बुराई की जड़” (Axis of Evil) कहा और उसके बाद मार्च 2002 में लॉस एंजेलिस टाइम्स (The Los Angeles Times) ने पेंटागन की एक गोपनीय रिपोर्ट के हवाले से कहा कि बुश प्रशासन ने सात देशों को अमेरिका के संभावित परमाणु हमले की सूची में रखा था और उन सात देशों में उत्तर कोरिया भी शामिल था. इससे यह साफ़ हो गया की उत्तर कोरिया के उपर अमेरिका के संभावित परमाणु हमले का खतरा जरा सा भी नहीं टला था.  अमेरिका की इन हरकतों को देखकर दिसम्बर 2002 में उत्तर कोरिया ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु निगरानी एजेंसी (IAEA) के जाँचकर्ताओं को देश से निकाला , और योंगब्योन रिएक्टर को फिर से चालू कर दिया और NPT से अलग हो गया.


2003 के वसंत में उत्तर कोरिया ने अमेरिका को एक और प्रस्ताव दिया उसके मुताबिक उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु कार्यक्रम बंद करने के बदले में अमेरिका से अपने सामान्य संबध बहल करने और अमेरिका को अपनी सुरक्षा का भरोसा देने को कहा.


उत्तर कोरिया के परमाणु संकट का हल खोजने के लिए सितम्बर 2003 से छः पक्षीय वार्ता( Six Party Talks) शुरू हुई जिसमें उत्तर कोरिया, रूस, चीन, अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल थे.  उत्तर कोरिया अमेरिका पर भरोसा खो चुका था और उसने 2006 में अपना पहला परमाणु परीक्षण कर दिया क्योंकि NPT से हट जाने के बाद उसके उपर कोई अंतर्राष्ट्रीय बंदिश नहीं थी. 2007 के बाद से उत्तर कोरिया अपना परमाणु कार्यक्रम बंद करने पर राजी हुआ और 2009 में छः पक्षीय वार्ता के तहत वार्ता शुरू हुई और उसमें उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना, व्यापार प्रतिबंध का अंत, और उत्तर कोरिया को परमाणु उर्जा के उपयोग के अधिकार की स्वीकृति शामिल थी. लेकिन यह वार्ता विफल रही क्योंकि अमेरिका और उसके दुमछल्ले दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया ने परमाणु हथियारों के क्रमिक विनष्टीकरण (Gradual dismantling) को खारिज कर दिया. बाद में 2011 में दुनिया ने देखा की अमेरिका और पश्चिमी देशों पर भरोसा कर दिसम्बर 2003 में अपना परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोषणा करने वाला लीबिया और उसके नेता मुअम्मर गद्दाफी के साथ क्या हुआ यह बताने की जरुरत नहीं है.


निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जंगखोर अमेरिका और उसके दुमछल्लों की शत्रुतापूर्ण नीति ने ही उत्तर कोरिया को अपना परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम चलाने पर मजबूर किया और आज उत्तर कोरिया इस स्थिति में आ चुका है की वह अमेरिका से न सिर्फ अपने  देश, अपनी जनता और अपनी समाजवादी व्यवस्था की रक्षा कर सकता है बल्कि अमेरिका द्वारा उसके ऊपर हमला करने पर वह अमेरिका को उसके घर में घुसकर मार भी सकता है. उत्तर कोरिया द्वारा ऐसी क्षमता हासिल कर लेने के बाद अमेरिका और उसके दुमछल्लों की हालत उस नख दंत विहीन कुत्ते की तरह हो गई है जो केवल भौंक ही सकता है काट नहीं सकता.

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